Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti

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Page 333
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 320 प्रशंसा एवं निंदा समान हो, पत्थर और स्वर्ण एक समान हो तथा जो जीवन और मरण में समभाव वाला हो, वह श्रमण है। -मुहुग्गदमट्ठ पुं [मुखोद्गतार्थ] श्रमण के मुख से उत्पन्न अर्थ । (पंचा. २) -लिंग न [लिङ्ग] श्रमणलिंग, श्रमणचिह्न। वोच्छामि समणलिंग। (लिं.१) समणी स्त्री [श्रमणी] श्रमणी, आर्यिका, साध्वी। (प्रव.चा.ज.व.२५) समणीओ तस्समाचारा। समत्त वि [समस्त] परिपूर्ण, सम्पूर्ण। जादं सर्य समत्तं । (प्रव.५९) समद वि [समतः] समानता, सदृशता। समदो दुराधिगा जदि। (प्रव.जे.७३) समदा वि [समता] साम्यभाव,रागद्वेष का अभाव समदारहियस्स। समणस्स। (निय.१२४) समद्दव वि [स्वमार्दव निजमृदुता, स्वकीय मार्दव । (निय.११५) समद्दवेणज्जवेण मायं च । (निय.११५) समधि सक [सम्+अधि] अध्ययन करना, ज्ञान करना। (प्रव.८६) तम्हा सत्यं समधिदव्वं । (प्रव.८६) समधिदव्व (विकृ.प्रव.८६) समभिहद वि [श्रमाभिहत] श्रम से खिन्न। (प्रव.चा.३०) समभुत्ति स्त्री [समभुक्ति] सम्यक् आहार, अच्छा भोजन। समभुत्ती एसणासमिदी। (निय.६३) समय पुं [समय] 1.काल, अवसर। (पंचा.१६७,स.१७०, प्रव.शे.४९, भा.३५, निय.३१) समयस्स सो वि समयो। (प्रव.जे.५०) 2. आत्मा। समयमिणं सुणह बोच्छामि। (पंचा.२) For Private and Personal Use Only

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