Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti

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Page 358
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 345 सुरम वि [सुरत अच्छी तरह से लीन, संलग्न, तत्पर आदसहावे सुरओ। (मो.१२) सुरत्तपुत्त पुं सुरक्तपुत्र रुद्र, दशपूर्वो का पाठी। तो सो सुरत्तपुत्तो। (शी.३०) सुलभ वि [सुलभ, सुखपूर्वक प्राप्त, सुप्राप्त। णवरि ण सुलभो विहत्तस्स। (स.४) सुविदिद वि [सुविदित अच्छी तरह ज्ञात, जाना हुआ। (प्रव.१४) सुविहि पुं [सुविधि] सुविधिनाथ, नवम तीर्थङ्कर। (ती.भ.४) सुब्बय पुं [सुव्रत] सुव्रतनाथ, बीसवें तीर्थङ्कर। (ती.भ.५) सुसील न [सुशील] उत्तम स्वभाव, श्रेष्ठ आचरण। (स.१४५, प्रव.६९) शुभकर्म सुशील है। सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं | (स.१४५) सुह न [सुख] 1. सुख, आनन्द, शान्ति। (पंचा.१२५, प्रव.१३, निय.१०५,स.१९४,भा.१३३,चा.४३) सुहं दुक्खं दिते भुंजंति। (पंचा. ६७)-कारणट्ठ। वि [कारणार्थ] सुखक. रणार्थ, सुख के कारण भूत। भोयसुहकारणटुं (भा.१३३) 2. पुंन [शुभ] शुभ, मङ्गल, कल्याण, नामकर्म का एक भेद। (पंचा.१३२, स.३७५, प्रव.९, निय.१४४, भा.१३५) असुहो सुहो व गंधो। (स.३७७) जिस जीव के मोह, राग, द्वेष, और चित्त की प्रसन्नता रहती है, उसके शुभ परिणाम होता है। (पंचा.१३१) -उप्पा पुं [उत्पाद] शुभ की उत्पत्ति, शुभ का प्रादुर्भाव। (स.२२४-२२७) विविहे भोए सुहुप्पाए। (स.२२५) - उवओगप्पग वि [उपयोगात्मक] शुभ For Private and Personal Use Only

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