Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti

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Page 361
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (चा.१४) सेस वि [शेष] अवशिष्ट, बाकी, अन्य, समाप्ति, उपसंहार। (पंचा.२२, प्रव.२, निय.३७, स.२४०, सू.१०, द.८) सेसा मे बहिरा भावा। (निय.१०२)-ग वि[क]अन्य। णेव पडं णेव सेसगे दवे। (स.१००) सोक्ख न [सौख्य] सुख, आनन्द। (पंचा.१६३, स.२०६, प्रव.१९, भा.१००) सोक्खं वा पुण दुक्खं । (प्रव.२) सोग पुं [शोक] संताप, दुःख, नोकषाय का एक भेद। जरामरणरोयसोगा य। (निय.४२) सोच्च न [शौच] शुद्धि, पवित्रता, निर्मलता, धर्म का एक लक्षण। जो उत्तम मुनि आकांक्षा से निवृत्त होकर वैराग्य युक्त रहता है, उसके शौच धर्म होता है। (द्वा.७५) सोणिय न [शोणित] रुधिर, खून, शोणित। (भा.४२) सोध सक [शुध्] संशोधन करना, साधना। जे सोधंति चउत्थं। (शी.२९) सोय देखो सोग। (स.३७५) सोवण्णिय वि [सौवर्णिक] सुवर्ण से निर्मित, स्वर्ग से बने। सोवण्णियम्हि णियलं। (स.१४६) सोवाण न [सोपान] सीढ़ी, सोपान, श्रेणी। (द.२१, भा.१४६, शी.२०) सोवाणं पढममोक्खस्स। (भा.१४६) सोस पुं शोष] शोषण। सोसउम्मुक्का। (भा.९३) सोह अक [शोधयचमकना, देदीप्यमान होना। जह फणिराओ For Private and Personal Use Only

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