Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti

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Page 362
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 359 सोहइ। (भा.१४४) सोहे (व.प्र.ए.शी.२८) सोहण वि [शोभन] शोभायुक्त। तिण्हं पि सोहणत्थे। (चा.४) सोहि स्त्री [शुद्धि शोधि] शुद्धि, पवित्रता। (स.३०६, चा.२, सू.२६) चारित्तं सोहिकारणं तेसिं। (चा.२) - कारण न [कारण] शुद्धि का कारण, शुद्धि का प्रयोजन। (चा.२) हंत सक [हन् वध करना, मारना। हंतूण दोसकम्मे । (बो.२९) हण सक [हन्] वध करना, मारना, काटना। (निय.९२, भा.२३) हणंति चारित्तखग्गेण। (भा.१५८) हणदि (व.प्र.ए.निय.९२) हणंति (व.प्र.ब.भा.१५८) हत्य पुंन [हस्त] हाथ, कर। (सू.१८, भा.४) तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्येसु। (सू.१८) हद वि [हत रहित, विनाशित, विहीन। (पंचा.१०४, निय.३१) -परावर वि [परापर] पूर्वापर से रहित। हवदि हदपरावरो जीवो (पंचा.१०४) -संठाण न [संस्थान संस्थान से रहित, आकारहीन । हदसठाणपमाणं तु। (निय.३१) हर सक ह] हरण करना, छीनना। आउंण हरेसि तुमं। (स.२४८) हरिस पुं हर्ष] हर्ष, आनन्द। (निय.३९) -भाव पुं [भाव] आनन्दभाव। णो हरसिभावठाणा। (निय.३९) हरिहर पुं हरिहर] ब्रह्मा। -तुल्ल वि [तुल्य] ब्रह्मा के समान। हरिहरतुल्लो वि णरो। (सू.८) For Private and Personal Use Only

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