Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
351
परेहिं सत्तेहि। (स.२४७) हिंसा स्त्री [हिंसा] वध, घात, पीड़ा। (प्रव.चा.१६, १७, निय.७०,
चा.३०, मो.९०) सोने, बैठने, खड़े होने तथा बिहार आदि क्रियाओं में साधु की प्रयत्नरहित-स्वच्छन्द प्रवृत्ति, निरंतर चलने वाली हिंसा ही है। (प्रव.चा.१६) दूसरा जीव मरे या न मरेपरन्तु अयत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले के हिंसा निश्चित है। मरदु व जीवदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। (प्रव.चा.१७) -मेत पुं [मात्र] हिंसामात्र। बंधो हिंसामेत्तेण समिदीसु। (प्रव.चा.१७) -विरह वि [विरति] हिंसा से विरति हिंसाविरइ अहिंसा (चा.३०)-रहिव वि [रहित] हिंसा रहिताहिंसारहिए
धम्मे। (मो.९०) हिम न [हिम] तुषार, बर्फ। हिमजलणसलिल। (भा.२६) । हियब न हृदय] अन्तःकरण, मन,हृदय। (पंचा.१६७, द.७)
णिच्चं हियए पवट्टए जस्स। (द.७) हिरण्ण न [हिरण्य] सुवर्ण, सोना। हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई ।
(बो.४५) हीण वि [हीन कम, अपूर्ण, थोड़ा, रहित। (स.३४२, प्रव.२४, निय.१४८, भा.१५) हीणो जदि सो आदा। (प्रव.२५) -देव पुं दिव नीच देव, निम्न देव। होऊण हीणदेवो। (भा.१५)। हु अ [हु/खलु] इस प्रकार, ऐसा, निश्चय, कि, इसलिए, भी, क्योंकि, और, ही, पादपूर्ति अव्यय। (पंचा३०, स.२८, २४४, २७३, निय.२०, मो.७३, ७६) जं परदव्वं सेडिदि हु। (स.२६१)
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 362 363 364 365 366 367 368