Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
343
सुद देखो सुअ (पंचा.४१,स.४,प्रव.३२,निय.१२,बो.२२,शी.१६) केवलिसुदकेवली भणिदं। (निय.१) -केवलि/केवली वि
केवलिन् श्रुतकेवली, द्वादशांगपाठी। (निय.१) -गुण पुं न [गुण] श्रुतज्ञानरूपी धागा । सुदगुणवाणा। (बो.२२) -पारयपउर वि [पारकप्रचुर] श्रुत के पारगामी। सदुपारयपउराणं। (शी.१७) सुदिट्ट वि [सुदृष्टि] अच्छी तरह से देखा गया। (सू.२,बो.४)
सुत्तम्मि जं सुदिटुं। (सू.२) सुदि स्त्री [श्रुति] परम्परागत ज्ञान। एरिसी दु सुंदी। (स.३३६) सुख वि [शुद्ध] पवित्र, निर्दोष, विमल, विशुद्ध, निष्कलङ्क। (पंचा.१६५,स.९०,प्रव.९,निय.४९,द.२८,बो.१७,भा.७७, मो.९३) सुद्धेण तदा सुद्धो। (प्रव.९) -आदेस पुं [आदेश] शुद्ध तत्त्व का उपदेश, शुद्ध शिक्षा। सुखो सुद्धादेसो। (स.१२) -उवओग पुं [उपयोग] शुद्धोपयोग। भणिदो सुद्धोवओगो त्ति। (प्रव.१४) -चरण न [चरण] निर्दोष चारित्र। जं चरदि सुद्धचरणं। (बो.१०) -णम/णय पुं [नय] शुद्धनय। (स.११, १४,१४१,निय.४९) भूयत्यो देसिदो दु सुद्धणओ। (स.११) -तव पुं न [तपस्] शुद्धतप। संजमसम्मत्तसुतवयरणे। (बो.१) -त्य वि [अर्थ] शुद्धार्थ। रूवत्थं सुद्धत्थं। (बो.५९) -भाव ' [भाव] विशुद्धभाव। सम्मत्तेण सुद्धभावेण। (द.२८) -संपोग पुं संप्रयोग] शुद्ध संप्रयोग,शुद्ध सम्बन्धामण्णदि सुद्धसंपओगादो। (पंचा.१६५) -सम्मत्त पुंन [सम्यक्त्व] शुद्ध श्रद्धान। (मो.९३, बो.१७) -सहाब पुं [स्वभाव शुद्ध स्वभाव। सुद्धं सुद्धसहावं।
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368