Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
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आराधक, निष्पन्न, बना हुआ। संसिद्धिराघसिद्धं । (स.३०४) सिदि स्त्री [सिद्धि] 1. मुक्ति, निर्वाण। (प्रव.चा.३९, द.२८, सू.८,मा.८६,मो.८५)तह विण पावइ सिद्धिं । (सू.१५)-गमणन [गमन] सिद्धि को प्राप्त,मुक्ति को प्राप्त। सिद्धिगमणं च तेसिं। (द.२८) -यर वि [कर] सिख को प्राप्त करने वाला। सम्मत्तं सिनियर। (मो.८९) -सुह न [सुख सिद्धि सुख,मोक्षसुख। जिणमुह सिद्धिसुहं हवेइ। (मो.४७) 2. सिद्धि निष्पति। अजुदा सिद्धित्ति णिहिट्ठा। (पंचा.५०) सिणि स्त्री [शुक्ति] सीप, घोंघा। सिप्पी अपादगा य किमी।
(पंचा.१४४) सिप्पिय वि [शिल्पिक शिल्पी, कारीगर, मूर्तिकार। जह सिप्पिओ
उचिटुं। (स.३५४) सिर न [शिरस्] मस्तक, माथा, सिर। (पंचा.२, भा.१)
अभिवंदिऊण सिरसा। (पंचा.१०५) सिरसा (तृ.ए.) सिल/सिला स्त्री [शिला] चट्टान, पत्थर, शिला। सिलकट्ठे भूमितले
। (बो.५५) सिलिट्ठ वि [श्लिष्ठ] बंधा हुआ, सम्बन्धित। सिव पुं [शिव] 1. जिनदेव, तीर्थङ्कर, सिद्ध। (भा.२,१२४,१५०) णाणी सिवपरमेट्ठी। 2. न [शिव] कल्याण, शुभ। सयं च बुद्धिसिवमपत्तो। (स.३८२) 3. पुंन [शिव] मुक्ति, मोक्ष। (सू.२, चा.४१, भा.९३) भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो। (भा.७४) -आलय न [आलय मोक्षमहल। (चा.४१, भा.९३) -कर पुं
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