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तक्काल क्रि वि [तत्काल] उसी समय । तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं।
(प्रव.८) तक्कालिय वि [तात्कालिक उसी समय सम्बन्धी, वर्तमान, भूत
एवं भविष्यत् संबंधी। जं तत्कालियमिदरं। (प्रव.४७) तच्च न [तत्त्व] सार, तत्त्व परमार्थ, यथार्थस्वरूप। केवलिगुणे थुणदि, जो सो तच्चं केवलिं थुणदि। (स.२९) -ग्गहण न [ग्रहण] तत्त्वग्रहण। -तण्हु वि [तज्ञ] वस्तु स्वरूप को जानने वाला। (पंचा.४७, प्रव. जे.१०५) - रुइ स्त्री [रुचि] तत्त्वरुचि। तच्चरुई सम्मत्तं । (मो.३८) तण न [तृण] घास, तृण। (बो.४६) तणू स्त्री [तनु] शरीर, काया। -उसग्ग पुं [उत्सर्ग] शरीर त्याग,
कायोत्सर्ग। निरन्तर आत्मा में लीन हो, शरीर सम्बंधी क्रियाओं से रहित होकर, वचन और मन के विकल्पों को रोकना कायोत्सर्ग है। (निय.१२१) तणू+उसग्ग में प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से स्वर से आगे स्वर होने पर शब्द के स्वर अर्थात् प्रारम्भ के शब्द के स्वर का लोप हो जाता है। (हे. लुक् १/१०) -उत्सर्ग का उस्सग्ग प्राकृत रूप व्याकरण की दृष्टि से बनना चाहिए, परन्तु छन्द भङ्ग न हो, इसलिए ऐसा प्रयोग हुआ। तण्हा स्त्री [तृष्णाप्यास, पिपासा, बावीस परीषहों में एक भेद।
तण्हाए (तृ.ए.प्रव.चा.५२) तण्हाहिं (तृ.ब.प्रव.७५) तत्तो अ [ततः] उससे, उस कारण से। तत्तो अमिओ अलोओ खं। (पंचा.३)
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