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200 पजंपिय वि [प्रजम्पित] कथित। (मो.३८) पजह सक [प्र+हा] त्याग करना,छोड़ना। (प्रव. शं.२०) पजहे
(वि. आ.प्र.ए.स.२२२) पजहिदूण (सं.कृ.स.२२३) पज्जअ/पज्जय पुं पिर्यय] पर्यय, क्रम, परिपाटी। (पंचा.५, १६, स.३०८, प्रव.४१) देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यञ्च ये जीव की पर्यायें हैं। (पंचा.१६) -ट्ठिअ वि [आर्थिक पर्यायार्थिक, नय विशेष | पर्यायार्थिकनय से वस्तु या द्रव्य अन्य-अन्य रूप होता है। (प्रव.जे.२२) -त्त वि [त्व] पर्यायत्व। (प्रव.८०) -त्य वि [अर्थ पर्यायार्थिक। (प्रव.जे.१९) -मूढ वि [मूढ] पर्यायमूद, पर्याय में मुग्ध। -विजुद वि [वियुक्त] पर्याय रहित। (पंचा.१२) पज्जयविजुदं दव्वं। पज्जत्त न [पर्याप्त] कर्म विशेष, नाम कर्म का एक भेद, जिसके
उदय से जीव छहों पर्याप्तियों से युक्त होता है। (स.६७) पज्जत्ति स्त्री [पर्याप्ति] पर्याप्ति, कर्मविशेष। (बो.३३,३६)
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन, ये छह पर्याप्तियां हैं। पज्जल अक [प्र+ज्वल्] जलना, दग्ध होना। (भा.१२२) पज्जाअ/पज्जाय पुं [पर्याय] पर्याय, परिणमन, पदार्थस्वभाव । (पंचा.११)देव की उत्पत्ति एवं मनुष्य का मरण होना, यही पर्याय-परिणमन है। (पंचा.१८) प्रवचनसार में इसी बात को इस तरह कहा गया है---उप्पादो य विणासो, विज्जदि सव्वस्स अत्यजादस्स। पज्जाएण दु केण वि, अत्यो खलु होदि सब्भूदो।
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