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पवयण न [प्रवचन] जिनसिद्धान्त, जिनागम। (पंचा. १६६, निय.१८४, भा.९१) जिणभत्ती पवयणे जीवो। (भा.१४४) -अभिजुत्त वि [अभियुक्त प्रवचन में प्रवीण,परमागम में कुशल (प्रव.चा.४६) - भत्ति स्त्री [भक्त्]ि प्रवचनभक्ति, परमागम की विनय, सोलह कारण भावनाओं में एक भेद। (पंचा.१७३) -सार पुंन [सार] प्रवचनसार,परमागमसार,सिद्धान्त रहस्य, द्वादशाङ्ग वाणी का रहस्य। (पंचा.१०३,प्रव.चा.७५) जो पुरुष गृहस्थ या मुनिचर्या से युक्त होता हुआ सर्वज्ञ के इस शासन को समझता है, वह अल्पकाल में प्रवचनसार को परमागम के रहस्य को प्राप्त हो जाता है। (प्रव.७५) पवर वि [प्रवर श्रेष्ठ, उत्तम। (भा.८२) -वर वि [वर] श्रेष्ठतम।
(श्रु.भ.४) पवाद पुं [प्रवाद] मत,अभिव्यक्ति,परम्परा। (श्रु.भ.५) पविट्ठ वि [प्रविष्ट] घुसा हुआ, प्रवेशित, समाहित। (प्रव.२९) पविभत्त वि [प्रविभक्त] अत्यन्त भिन्न, पृथक्-पृथक्, विभाग
युक्त। (प्रव.जे.१४) पविस सक [प्र+विश्] प्रवेश करना, घुसना। (पंचा.७, प्रव.जे. ८६) पविसदि (व.प्र.ए.प्रव.जे.९५)पविसंति (व.प्र.ब.प्रव.जे.८६) पविसंता (व.कृ.पंचा.७) पविहत्त वि [प्रविभक्त] भेद युक्त , विभाजित । (पंचा.८०)
पविहत्ता कालखंधाणं। पवेस सक [प्र+वेशय] प्रवेश कराना,घुसाना। (स.१४५) कह तं
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