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285 विण्हु पुं [विष्णु] 1.विष्णु। (स.३२१) लोयस्स कुणइ विण्हु। (स.३,२१,३२२) 2. परमात्मा का एक नाम। (भा.१५०) जो ज्ञान के द्वारा समस्त लोक-अलोक में व्यापक है, वह विष्णु है। (भा.१५०) विण्णेय विकृ[वि+ज्ञा] जानने योग्य, समझने योग्य । (स.२४०,
निय.१११) णिच्छयदो विण्णेयं। (स.२४५) वित्ति स्त्री [वृत्ति] जीविका, जीवन निर्वाह का साधन, चारित्र। वित्तिणिमित्तं तु सेवए रायं। (स.२२४) -णिमित्त न [निमित्त]
आजीविका हेतु, जीविका के कारण। (स.२२४) वित्थड वि विस्तृत] विस्तारयुक्त, विशाल। (प्रव.६१)
लोगालोगेसु वित्थडा दिट्ठी। (प्रव.६१) वित्थार पुं विस्तार फैलाव, प्रसारण, विस्तार। (प्रव.जे.१५,
निय.१७) सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। (प्रव.जे.१५) विदिद वि [विदित] ज्ञात, जाना हुआ, सीखा। (प्रव.७८, प्रव.चा.७३) -अत्यपुंन [अर्थ] ज्ञात हुए पदार्थ। एवं विदिदत्यो जो। (प्रव.७८) -पयत्य पुं न [पदार्थ] जाने गए पदार्थ। सम्म विदिदपयत्था। (प्रव.चा.७३) विदिय वि [द्वितीय] दूसरा, संख्यावाची शब्द। (निय.५७,
चा.५,२५,२६, भा.११४) विदियस्स भावणाए। (चा.३३) -बद पुंन [व्रत] द्वितीयव्रत, सत्यव्रत। (निय.५७) जो साधु राग, द्वेष और मोह से युक्त असत्य भाषा के परिणाम को छोड़ता है, उसके दूसरा सत्यव्रत होता है। (निय.५७)
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