SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 285 विण्हु पुं [विष्णु] 1.विष्णु। (स.३२१) लोयस्स कुणइ विण्हु। (स.३,२१,३२२) 2. परमात्मा का एक नाम। (भा.१५०) जो ज्ञान के द्वारा समस्त लोक-अलोक में व्यापक है, वह विष्णु है। (भा.१५०) विण्णेय विकृ[वि+ज्ञा] जानने योग्य, समझने योग्य । (स.२४०, निय.१११) णिच्छयदो विण्णेयं। (स.२४५) वित्ति स्त्री [वृत्ति] जीविका, जीवन निर्वाह का साधन, चारित्र। वित्तिणिमित्तं तु सेवए रायं। (स.२२४) -णिमित्त न [निमित्त] आजीविका हेतु, जीविका के कारण। (स.२२४) वित्थड वि विस्तृत] विस्तारयुक्त, विशाल। (प्रव.६१) लोगालोगेसु वित्थडा दिट्ठी। (प्रव.६१) वित्थार पुं विस्तार फैलाव, प्रसारण, विस्तार। (प्रव.जे.१५, निय.१७) सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। (प्रव.जे.१५) विदिद वि [विदित] ज्ञात, जाना हुआ, सीखा। (प्रव.७८, प्रव.चा.७३) -अत्यपुंन [अर्थ] ज्ञात हुए पदार्थ। एवं विदिदत्यो जो। (प्रव.७८) -पयत्य पुं न [पदार्थ] जाने गए पदार्थ। सम्म विदिदपयत्था। (प्रव.चा.७३) विदिय वि [द्वितीय] दूसरा, संख्यावाची शब्द। (निय.५७, चा.५,२५,२६, भा.११४) विदियस्स भावणाए। (चा.३३) -बद पुंन [व्रत] द्वितीयव्रत, सत्यव्रत। (निय.५७) जो साधु राग, द्वेष और मोह से युक्त असत्य भाषा के परिणाम को छोड़ता है, उसके दूसरा सत्यव्रत होता है। (निय.५७) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy