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-गोचर/गोयर पुं [गोचर] वचन का विषय, वचन के द्वारा ग्रहण करने योग्य। ते होंति भिण्णदेहा, सिद्धा वचिगोयरमदीदा। (पंचा.३५) वच्च सक [वच्] 1. कहना, बोलना। कह ते जीवो त्ति वच्चंति। (स.४४) 2. सक व्रज्] जाना, गमन करना। (लिं.६,९) वच्चदि णरयं पाओ। (लिं.६) वच्छल्ल न [वात्सल्य] स्नेह, अनुराग, प्रेम, सम्यक्त्व का एक अङ्ग, सोलह कारण भावना का एक भेद। (स.२३५, चा.११, बो.१६) जो जीव आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के प्रति तथा मोक्षमार्ग में वत्सलता करता है, वह वात्सल्य से युक्त है। (स.२३५) -त्त/दा [त्व ता] वत्सलत्व, वत्सलता, स्नेहपना। (स.२३५, प्रव.चा.४६) -भावजुद वि भावयुत वात्सल्यभाव से युत, वात्सल्यसहित। (स.२३५)। वज सक [ब्रज्] जाना, गमन करना। णिव्वाणपुरं वजदि धीरो।
(पंचा.७०) वज्ज सक [वर्जय] त्याग करना, छोड़ना। (स.१४८, १४९, निय.१२९, चा०१५) वज्जेदि (व.प्र.ए.स.१४८, निय.१३०) वज्जति (व.प्र.ब.स.१४९) वज्जहि (वि. आ.म.ए.चा.१५) वज्जहि णाणे विसुद्धसम्मत्ते। (चा.१५) वज्ज पुं न [वज्र] हीरा, पत्थर विशेष। जहरयणाणं वज्ज।
(भा.८२) वज्जण न [वर्जन] परित्याग, परिहार। अणत्थदंडस्स वज्जणं
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