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220 (स.४०६) पाउगिओ विस्ससो वावि। पाओग्ग वि [प्रायोग्य] योग्य, उचित, लायक, उपयुक्त, सक्षम।
(प्रव.जे.७७) पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो। (निय.२४) पाठ पुं [पाठ] अध्ययन, वाचन, पठन, आवृत्ति। (स.२७४) पाठो
ण करेदि गुणं। पाड सक [पातय] गिराना, डालना, फेंकना। (द.१२) पाए पाडंति दंसणधराणं। पाडिहेर न [प्रातिहार्य] देवताकृत प्रतिहारकर्म,देवकृत पूजा विशेष,
अष्ट प्रातिहार्य। पाडुभव अक [प्रादु+भू] उत्पन्न होना। (प्रव.शे.११) पाडुब्भाव पुं प्रादुर्भाव उत्पाद, उत्पत्ति। (प्रव.शे.१९) पाण पुं न [प्राण], जीवन के आधारभूत तत्त्व,जीवन शक्ति। (पंचा.३०, प्रव.जे.५८, बो.३०) जीवों के प्राणों की संख्या क्रमश:- एकेन्द्रिय के चार (स्पर्शन, काय बल, आयु और श्वासोच्छवास), द्वीन्द्रिय के छह (स्पर्शन, रसना, काय बल, वचनबल,आयु और श्वासोच्छ्वास) त्रीन्द्रिय के सात, (स्पर्शन, रसना,घ्राण,वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास) चुतरिन्द्रिय के आठ(स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, वचनबल, कायबल, आयु, और श्वासोच्छवास), पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी के नौ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास) तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के दश (स्पर्शन, रसना,घ्राण,चक्षु,कर्ण,मनबल,वचनबल,कायबल,आयु,और
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