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(स.१९७) परगणचेट्ठा कस्सवि। पगासग वि [प्रकाशक प्रकाश करने वाला, प्रकाशक । (पंचा.५१) पचोदिद वि [प्रचोदित] प्रेरित,प्रेरणा को प्राप्तापवयण
भत्तिप्पचोदिदेण मया। (पंचा.१७३) पच्चक्ख न [प्रत्यक्ष] इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना उत्पन्न होने वाला ज्ञान, विशद, निर्मल। (प्रव.२१, ३८, सू.४) मूर्त, अमूर्त, चेतन, अचेतन, स्व एवं पर द्रव्य को देखने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है, अतीन्द्रिय है। मुत्तममुत्तं दळ, चेदणमियरं सगं च सव् च । पेच्छंतस्स दुणाणं,पच्चक्खमणिंदियं होइ।। (निय.१६७) पच्चक्खा सक [प्रत्या+ख्या] त्यागना, छोड़ना, निराकरण करना।
(स.३४) पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। पच्चक्खाइ (व.प्र.ए.) पच्चखाणन [प्रत्याख्यान] 1.प्रत्याख्यान, त्याग करने की प्रतिज्ञा। (स.३४,निय.१००,भा.५८)2.आगम ग्रन्थ, नवम पूर्व। (श्रु.भ.६) पच्चय पुं [प्रत्यय] 1. प्रत्यय, कारण, प्रतीति, ज्ञान, बोध, निर्णय (स.११५)पच्चयणोकम्मकम्माणं । (स.११४) 2.व्याकरण प्रसिद्ध प्रकृति में लगने वाला शब्द विशेष । (स.११२) 3.बन्ध का कारण, हेतु,निमित्त। (स.१०९) पच्चूस पुं प्रत्यूष] प्रातःकाल, प्रभात। (नि.भ.अं.) पच्छण्ण वि [प्रच्छन्न] गुप्त, अप्रकट, आच्छादित, ढंका हुआ।
(प्रव.५४) पच्छा अ [पश्चात् पीछे, अनन्तर। (भा.७३)
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