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186 दीवायण पुं [द्वीपायन] द्वीपायन नामक मुनि। (भा.५०) दीस सक [दृश्] देखा जाना, अवलोकित किया जाना। (स.३११,
३२२) दीसइ दीसए (कर्म.व.प्र.ए.) कर्मणि प्रयोग में दृश् का दीस आदेश हो जाता है। दीह वि [दीर्घ] लम्बा,अधिक,विस्तार। (भा.९९) -काल पुं [काल] दीर्घसमय, अधिकसमय। (भा.९५) -संसार पुं संसार], दीर्घसंसार, जन्मजन्मांतर। (भा.९९) जो जीव, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन-धान्य है, ऐसी तीव्र आकांक्षा करता है, वह दीर्घ संसार में परिभ्रमण करता है। (द.२४-३८) दु अ [तु] और, तथा, किन्तु,परन्तु, लेकिन, ऐसा, तो, इसलिए, कि, फिर भी । (पंचा.८९, स.२५३,२१०,भा.१८, मो.४) कालो दुपडुच्चभवो। (पंचा.२६) सो तेण दु अण्णाणी। (मो.५६) दु अ [दुर्] खराब, बुरा, दुष्ट, अशुभ। (प्रव.जे.६६,निय.१०३,
बो.३६,मो.१६) दुइय वि [द्वितीय] द्वितीय, दूसरा। (सू.२१) दुक्ख पुं न [दुःख पीड़ा, क्षोभ, व्यथा। (पंचा.१२२, स.७४, प्रव.२०, निय.१७८) जीव के साथ बंधे हुए आस्रव अनित्य, अशरण और दुःख। (स.७४) आम्रवों की अशुचिता, और विपरीतता ही दुःख का कारण है। (स.७२)-क्खय वि [क्षय] दुःखक्षय, दुख का नाश, दुःख रहित। (चा.२०) -परिमोक्ख पुं [परिमोक्ष] दुःखो से पूर्ण मुक्ति, दुःखों से अत्यन्त छुटकारा। (पंचा.१०३, प्रव .चा.१) -फल पुंन [फल] दुःखफल दुःख का
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