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तित्ति स्त्री [तृप्ति तृप्ति, इच्छापूर्ति। (भा.२२) तित्तिय वि [त्रि-त्रि] तीन-तीन का समूह। तित्थ पुंन [तीर्थ] 1. तीर्थ, तीर्थप्रवर्तक, सर्वज्ञवचन। (प्रव.१,
बो.२५) निर्मल, साम्यधर्म, सम्यक्त्व,संयम, तप और ज्ञान को जिन शासन में तीर्थ कहा गया है। (बो.२६) -कर/यर पूंन [कर तीर्थङ्कर, सर्वज्ञ। (भा.७९) तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय से जिसे समवसरणादि विभूति प्राप्त हो वह तीर्थङ्कर है। 2. न [तीर्थ] तट, घाट, नाव। तिदिय वि [तृतीय] तीसरा। (निय.५८) -वद पुं न [व्रत] तृतीयव्रत, तीसराव्रत, अचौर्यव्रत। जो ग्राम, नगर एवं वन में परकीय वस्तु को देखकर उसके ग्रहण के भाव को छोड़ता है, उसी के तीसरा अचौर्यव्रत होता है। (निय.५८) गामे वा णयरे वारण्णे वा, पेच्छिऊण परमत्थं। जो मुचदि गहणभावं, तदियवदं होदि तस्सेव।। (निय.५८) तिधा वि त्रिधा] तीन प्रकार का। (प्रव.३६) तिमिर न [तिमिर] अन्धकार, अंधेरा। (प्रव. ६७) -हर वि [हर]
अज्ञान को हरण करने वाला! तिमिरहरा जइ दिट्ठी। (प्रव.६७) तिय न [त्रिक] तीन का समुदाय। तियेह साहूण मोक्खमग्गम्मि। (स.२३५) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इत्यादि जैसे कोई भी तीन का समूह । -रण न करण] तीन करण। मन-वचन और काय ये तीन करण हैं। तियरणसुद्धो अप्पं । (भा.११४) -लोय पुं लोक] तीन लोक। ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक
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