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( निय. १०५) णिक्कसायरस दंतस्स, सूरस्स ववसायिणो ।
( निय. १०५)
दंति पुं [दन्तिन्] हस्ति, हाथी । (निय ७३) पंचिंदियदंतिप्पणिद्दलणा ।
दंस सक [ दर्शय् ] दिखलाना, बतलाना । दंसेइ मोक्खमग्गं । (बो. १३)
,
दंसण पुं न [ दर्शन ] 1. तत्त्व श्रद्धा, तत्त्वावलोकन, तत्त्वरुचि । 2. देखना, पहिचाना, पदार्थ का सामान्यावलोक । 3. जिनलिङ्ग, जिनमुद्रा । 4. रत्नत्रय | आचार्य कुन्दकुन्द ने दंसण शब्द का प्रयोग अपने सभी ग्रन्थों में किया है, किन्तु दर्शनपाहुड और बोधपाहुड में यह विशेष पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है- जो सम्यक्त्वरूप, संयमरूप, उत्तमधर्मरूप, निर्ग्रन्थरूप एवं ज्ञानमय मोक्षमार्ग को दिखलाता है, वह दर्शन है। दंसेइ मोक्खमग्गं, सम्मत्तं संजमं सुधम्मं च । णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं । (बो. १३) जो अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग --- दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़, मन-वचन-काय से संयम में स्थित हो, ज्ञान से एवं कृत-कारित - अनुमोदना से शुद्ध रहता है तथा खड़े होकर भोजन करता है वह दर्शन है । दुविहंपि गंथचायं, तीसुवि जोगेसु संजमं ठादि । णाणम्मि करणसुद्धे, उब्भसणे दंसणं होई ।। (द. १४) दर्शन पाहुड में ऐसा दर्शन ही धर्म का मूल, प्रधान कहा गया है । दंसणमूलो धम्मो । (द. २) जिस प्रकार वृक्ष, जड़ से शाखा आदि परिवार से युक्त कई गुणा स्कन्ध
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