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144 का रूप है। अपभ्रंश में दीर्घ का हस्व हो जाता है। ठिद/ठिय/ट्ठिद/ट्ठिय वि स्थित] अवस्थित, स्थित हुआ। (स.२६७,
प्रव. जे.२,निय.९२,भा.४०,बो.१२,सू.१४) दंसणणाणम्हि ठिदो। (स.१८७) जे दु अपरमे द्विदा भावे। (स.१२) ठिदि स्त्री [स्थिति] स्थिति, स्थान, कारण, नियम, बन्ध का एक
भेद। (पंचा.७३, स.२३४, निय.३०, प्रव.१७) -करण न [करण] स्थितीकरण, सम्यक्त्व के आठ अङ्गों में से एक अङ्ग। (चा.७)जो जीव उन्मार्ग में जाते हुए अपने आत्मा को रोककर समीचीन मार्ग में स्थापित करता है वह स्थितीकरण युक्त होता है। (स.२३४)-किरियाजुत्त वि [क्रियायुक्त ठहरने की क्रिया से युक्त। (पंचा.८६) -बंधट्ठाण न [बन्धस्थान] स्थितिबन्धस्थान। (स.५४, निय.४०) -भोयणमेगभत्त पुं न [भोजनमेकभक्त] खड़े-खड़े एक बार भोजन करना, साधुओं का एक मूलगुण। (प्रव. चा.८)
डह सक [दह्] जलाना, दग्ध करना। (भा.१३१, ११९ शी.३४) डहइ (व.प्र.ए.भा.१३१) डहंति (व.प्र.ब.शी.३४) डहिऊण (सं.कृ.भा.११९) डहण न [दहन] जलना, भस्म होना। (मो.२६) डहिअ वि दहित] जला हुआ, भस्म, भस्मीभूत। (भा.४९) डाह पुं दाह] 1. जलन, तपन, गर्मी (भा.९३, १२४) 2. पुं [डाह] जलन, ईर्ष्या।
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