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स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, और भक्त कथा (भोजन कथा) ये चार भेद किये हैं। थी-राज-चोर-भत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स। (निय.६७) कहिय वि [कथित] उपदेशित, प्रतिपादित, कथित। (निय.१३९, बो.६०, मो.१८) परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु। (निय.१३९) सुद्धं जिणेहि कहियं। (मो.१८) का सक [कृ] करना। काहिदि काहदि (भवि.प्र.ए.मो.९९, निय.१२४) काउं/कार्दु (हे.कृ.स.२२०) सक्कदि काउं जीवो। (निय.११९) काऊण (सं.कृ.निय.१४०,लिं.१,१३,द.१)काऊण णमुक्कारं। (द.१) कायव्वो कायव्वं (वि.कृ.निय.११३, भा.९६, सू.७,लिं.२) खेडे वि ण कायव्वं । (सू.७) अणवरयं चेव कायब्वो! (निय.११३) काउस्सग्ग पुं [कायोत्सर्ग] शरीर के प्रति ममत्व भाव रहित।
(निय.७०) काम पुं [काम] इच्छा, अभिलाषा, वासना, चार पुरुषार्थों में एक, इन्द्रिय अनुराग। (स.४,भा.१६३) अत्थो धम्मो य काममोक्खो य।(भा.१६३) काअ/काय पुं [काय] 1.शरीर, देह। 2.प्रदेश, समूह, राशि। (स.२४०, निय.६८, बो.३८) भणिओ सुहुमो काओ। (सू.२४) -कलेस पुं [क्लेश] शरीर की पीड़ा, शारीरिक दुःख। कायकिलेसो। (निय.१२४) -गुत्ति स्त्री [गुप्ति] काय की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना, शरीर की प्रवृत्तिमात्र को रोकना।
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