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किये गये हैं-अइथूलथूलथूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च। सुहुमं च सुहुमसुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेदं ।। (निय.२१) -अंतरिद वि [अन्तरित स्कन्ध में व्यवहित, स्कन्ध में समाहित । खधंतरिदं दव्वं । (पंचा.८१) -णिव्वत्ति वि [निर्वृत्ति स्कन्धों की परिणति, स्कन्धों की रचना। (पंचा.६६) बहुप्पयारेहिं खंधणिवत्ती। (पंचा.६६) -देस पुं दिश] स्कन्ध का भाग,एक स्कन्ध का आधा। (पंचा.७४) प्पदेस पुं प्रदेश स्कन्ध प्रदेश,स्कन्ध के आधे भाग का भी आधा। (पंचा.७४)-प्पभव वि[प्रभव स्कन्ध से उत्पन्न होने वाला। (पंचा.७९)सद्दो खंधप्पभवो। (पंचा.७९)-सरूव वि [स्वरूप] स्कन्ध स्वरूप। (निय.२८) खंधसरूवेण पुणो परिणामो। (निय.२८) खंभ पुं [स्तम्भ] खंभा, स्तम्भ। (भा.१५८) ते सव्वदुरियखंभ,
हणंति चारित्तखग्गेण । (भा.१५८) खण सक [खन्] खोदना। खणदि (व.प्र.ए.लिं.१५) खणंति (व.प्र.ब.भा.१५२) ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्येण । (भा.१५२) खण पुं [क्षण] बहुत थोड़ा समय, क्षणभर मात्र। (प्रव. जे. २७) -भंग वि [भङ्ग] क्षण में नष्ट होने वाला, समय-समय में नष्ट हुआ। (प्रव. जे. २७) खणभंगसमुझे जणे कोई। (प्रव. जे.२७) -भंगुर वि [भङ्गुर] प्रति समय नष्ट होने वाला। कालो खणभंगुरो णियदो। (पंचा.१००) खणण न खिनन] खोदा जाना। (भा.१०) खणणुत्तावण|
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