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गंथियं सम्मं । (सू.१) जिनागम या जिनशास्त्र सर्वज्ञ के वे वचन हैं, जो परस्पर विरोध से रहित हैं, उनको जो श्रमण जीवादि तत्त्वों के मनन पूर्वक धारण करता है उसका उद्यमश्रेष्ठ है। प्रव.चा.३२-३७) -समय पुं [समय] जिनशासन, जिनागम, जिनवचन। णिहिट्ठा जिणसमए। (निय.३४) -सम्म न [सम्यग्] जिनोपदिष्ट सम्यक्त्व। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्त्व के प्रति आठ अङ्ग सहित जो श्रद्धान है, वह जिनसम्यक्त्व है। (चा.८) -सम्मत्त न [सम्यक्त्व] जिनश्रद्धान। (चा.११,१४) -सासण न [शासन] जिनशासन, जिनागम, जिनवचन। रायादिदोसरहिओ, जिणसासणमोक्खमग्गुत्ति। (चा.३९) -सुत्त न [सूत्र] जिनसूत्र, जिनवचन । सम्मत्तस्स णिमित्तं, जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। (निय.५३) जिनसूत्र को जानता हुआ जीव संसार की उत्पत्ति के कारणों को नाश करता है। सुत्तम्मि जाणमाणो, भवस्स भवणासणं च सो कुणदि। (सू.३) जिणा (प्र.ब.स.३९०) जिणस्स (ष.ए.द.१८) जिणाणं (ष.ब.पंचा.१) जिण सक [जि] जीतना, वश में करना। जे इंदिए जिणित्ता।
(स.३१) जिणित्ता (सं.कृ.स.३२) जित्तिय अ [यावत्] जितने। (स.३३४) सुहासुहं जित्तियं किंचि।
(स.३३४) जिद/जिय वि [जित जीता हुआ,पराभूत करने वाला,जीतने वाला। -इंदिय वि [इन्द्रिय] इन्द्रियों को जीतने वाला। (स.३१) तं खुल जिदिदियं। (स.३१) -कसा पुं [कषाय] कषाय को
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