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आयार पुं [आचार] आचरण, अङ्ग ग्रन्थों में से पहला ग्रन्थ । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और वीर्य से पांच आचार हैं। णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं। (प्रव.चा.२) आयारादिणाणं। (स.२७६)-विणयहीण वि [विनयहीन आचार एवं विनय से रहित। (लिं.१८) आयारविणयहीणो। (लिं.१८) आरंभ पुं [आरम्भ] जीवहिंसा की क्रिया, वध, पापकर्म। तस्सारंभणियत्तणपरिणामो। (निय.५६) जो संजमेसु सहिओ, आरंभपरिग्गहेसु विरओ। (सू.११)देशविरत श्रावक के भेदों में आरम्भत्याग का भी कथन है। (चा.२२) आराधय वि [आराधक पूजा करने वाला, उपासना करने वाला। (शी.१४) आराधिय वि [आराधित] पूजित,अर्चित। (स.३०४) आराह/आराहम वि [आराधक] पूजा करने वाला। रयणत्तयमाराहं,जीवो आराहओ मुणेयव्बो। आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं गाणं। (मो.३४) आराह संक [आ+राधय्] सेवा करना, भक्ति करना। रयणत्तयं पि जोई, आराहइ जो हु जिणवरमएण। (मो.३६) आराहतो (व.कृ.चा.१२,१९) आराहण न [आराधन प्राप्ति। (चा.२) आराहणा स्त्री [आराधना] सेवा, भक्ति, मुक्तिपथ में अग्रसर। (भा.९९, स.३०५, निय.८४) आराहणए णिच्चं। (स.३०५) आरुह सक {आ+रुह] ऊपर स्थित होना। सिलकट्टे भूमितले, सळे
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