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क्षत्रचूड़ामणिः ।
२३ पनस फलके समान है इस प्रकार संसारमें किसीकी संपत्ति स्थिर नहीं है इत्यादि बारह भावनाओंका बार २ चिन्तवन कर जिनेन्द्र मंदिरमें जाकर निनदेवकी पूजा की पूजा करते समय वहांपर आये हुए चारुण मुनिसे धर्मका उपदेश सुन इन्होंने अपनी पूर्वभव संबंधी भवाबली पूछी।
पूछने पर महामुनिने कहा कि " तुम पूर्व जन्ममें धातुकी खंड द्वीपके भूमि तिलक नाम नगरके पवनवेग नाम राजाके.यशोधर नामके पुत्र थे बालक अवस्थामें तुम किसी हंसके बच्चेको उसके स्थानसे क्रीड़ा करनेके लिये उठा लाये थे तब तुम्हारे पिताने तुमको उपदेश देकर धर्मका स्वरूप समझाया तब तुमको अपने कृत्य पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ फिर अन्तमें तुमने अपनी माठ स्त्रियों सहित मुनि पद धारण कर लिया पश्चात् स्वर्गमें उत्पन्न हो वहांसे चयकर यहां पर तुम सत्यंधर महारानके पुत्र हुए । इस लिये पूर्व जन्ममें तुमने हंसके बच्चेको उसके मावाप तथा उसके स्थानसे अलग किया था और अपने घर लाकर उसे पिजरेमें बंद किया था इस लिये उसके अलग करनेसे तुम्हें अपने माता पितासे वियोग और उसके बंधनसे बंधनका दुःख हुआ।
फिर जीवंधर स्वामी मुनिके यह बचन सुन कर राज्यसे विरक्त हो घर आकर गन्धर्वदत्ताके पुत्र सत्यंधरको राज्य दे अपनी आठ स्त्रियों और छोटेभाई नन्दाढ्य सहित वर्धमान स्वामीके समीप जाकर मुनिपद धारण कर लिया और अन्तमें फिर घोर तपश्चरणके द्वारा अष्ट कर्मोंका नाश कर मोक्षपद प्राप्त किया।
इतिशम् ? शुभं भूयात् ! !