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अस्तित्व की खोज : सम्यग्दर्शन
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मानो शरीर छूट गया । प्रवृत्ति इतनी शांत हो जाती है कि ऐसा अनुभव होता है कि शरीर है ही नहीं और कभी-कभी ऐसा अवसर भी आ जाता है कि साधक पूछ बैठता है—अरे, मेरा शरीर कहां चला गया ? यह अनहोनी बात नहीं है । ऐसा होता है । कायोत्सर्ग का अभ्यास भेदज्ञान की साधना है ।
एक साधक गुरु के पास जाकर बोला- “मेरा मोह शांत नहीं हो रहा है। मान की मात्रा भी नहीं घट रही है । अहं का आवेग भी है । यह नहीं हो रहा है । वह नहीं हो रहा ।" उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी । आचार्य शांतभाव से सुनते रहे । उन्होंने कहा - "चुप रहो । मेरी शांति भंग मत करो । चले जाओ । छह महीनों तक एक प्रयोग करो कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है । फिर मेरे पास आना । "
शिष्य अपने स्थान पर गया । छह महीने तक उसी प्रक्रिया में लगा रहा । बहुत ही तन्मयता से वह प्रयोग करता रहा । छह महीने बीते। वह आचार्य के पास आया । आचार्य ने कहा - " कुछ पूछना चाहते हो ?” शिष्य बोला - "कुछ भी नहीं पूछना चाहता । सारे प्रश्न समाहित हो गए हैं । मन में प्रश्न रहे ही नहीं । सब समाप्त हो चुके हैं ।"
प्रश्न तब तक उभरते हैं जब तक हमारा स्तर बौद्धिक होता है, अनुभवात्मक नहीं होता । श्रवण और ज्ञान बौद्धिक पक्ष के प्रतिनिधि हैं । ज्ञान के बाद आता है -विज्ञान | विज्ञान अर्थात् विवेक । यहां से साधना प्रारम्भ होती है, अनुभव का स्तर यात्रा पथ बनता है ।
सम्यग्दर्शन की साधना के दो सूत्र हैं—विवेक प्रतिमा और कायोत्सर्ग प्रतिमा । दोनों की चर्चा प्रस्तुत की । प्रश्न होता है कि विवेक प्रतिमा की साधना से क्या फलित होता है ? विवेक जागरण से क्या होता है ? इसके पांच परिणाम हैं :
पहला परिणाम है— शांति । सम्यग्दर्शन के बिना शांति नहीं हो सकती । हेय और उपादेय को समझे बिना शांति फलित नहीं होती ।
दूसरा परिणाम है— मुमुक्षुभाव । बंधन में आदमी रहना नहीं चाहता । जिसे शांति का अनुभव हो चुका है वह बंधन में रहना नहीं चाहेगा | जिससे शांति मिली है उसी ओर जाना चाहेगा | फिर मोह की मूर्च्छा सघन नहीं होगी संवेग का अर्थ है – मुमुक्षा - मुक्त होने की इच्छा तीसरा परिणाम है- अनासक्ति । जो शांति और संवेग का अनुभव
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