Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 23
________________ ( २२ ) रस्रसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इनकी नियमसे उदय-उदीरणा होती है। यहाँ जिस गतिमें जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा बतलाई है, आयुको छोड़कर उन प्रकृतियोंकी तत्प्रायोग्य अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण स्थितियां अपकर्षित कर उदयमें दी जाती है और आयुओंमेंसे जिसके उदय प्राप्त जिस आयुकी जो स्थिति हो उसकी उदीरणा होती है । इसी प्रकार जिसके जिन प्रकृतियोंकी उदयउदीरणा होती है उनमेंसे प्रशस्त प्रकृतियोंकी बन्धस्थानसे अनन्तगुणी हीन चतु:स्थानीय उदीरणा होती है और अप्रशस्त प्रकृतियोंकी सत्त्वस्थानसे अनन्तगुणी हीन द्विस्थानीय उदीरणा होती है। तथा प्रदेशोंकी अपेक्षा अजघन्य-अनुत्कृष्ट उदीरणा होती है। यह उदीरणाका विचार है । इसी प्रकार उदयके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए। के अंसे झीयदे पव्वं' यह तीसरी सत्रगाथा है। इसके पर्वार्षवारा दर्शनमोहकी उपशमना करने के सन्मुख होनेके पूर्व ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूपसे किन कर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है और किन कर्मोंकी उदयम्युच्छित्ति हो जाती है इसकी पृच्छा की गई है और उत्तरार्ष द्वारा किस स्थानपर अन्तर करणक्रिया होती है और किस स्थानपर किन कर्मोका यह जीव उपशामक होता है यह पृच्छा की गई है। आगे इन पृच्छाओंका चूणिसूत्रों और जयधवला टीकाद्वारा विस्तारसे समाधान करते हुए चौतीस बन्धापसरणोंका निर्देश करनेके बाद दर्शनमोहनीयके उपशामकके पृथक-पृथक गतिके अनुसार किन प्रकृतियोंका उदय होता है और कौन प्रकृतियां उदयसे व्युच्छिन्न रहती है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि निद्रादि पाँच दर्शनावरण, एकेन्द्रियादि चार जातिनामकर्म, चार आनुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नामकर्म ये प्रकृतियां उदयसे व्युच्छिन्न रहती हैं। दर्शनमोहनीयके उपशमका प्रारम्भ करने वाला जीव न तो एकेन्द्रिय होता है, न विकलत्रय और असंज्ञी ही होता है और न ही अपर्याप्तक होता है। साथ ही वह साकार उपयोगवाला और जागृत होता है, अतः उसके ये प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न रहती हैं । यह ओघ निर्देश है । आदेशसे किस गतिमें किन प्रकृतियोंका किस रूपसे उदय रहला है यह मूलसे जान लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहां उसका निर्देश नहीं किया है । अन्तरकरण क्रिया भी अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें नहीं होती और न ही यह जीव यहाँपर उपशामक संज्ञाको प्राप्त होता है। आगे जहाँ अन्तरकरण क्रिया होगी और जहां जाकर यह जीव उपशामक कहलायेगा वहाँ इनका निर्देश करेंगे। __ चौथी सूत्रगाथा है-'किंट्ठिदियाणि कम्माणि' आदि । इस द्वारा दर्शनमोहनीयका उपशामक जीव कितनी स्थितिका और कितने अनुभागका घात कर स्थितिसम्बन्धी और अनुभागसम्बन्धी किस स्थानको प्राप्त होता है यह पृच्छा की गई है। तदनुसार इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जो स्थितिसत्कर्म अन्तःकोड़ाकोड़ प्रमाण है उसमें से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके बलसे संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका घात कर पूर्वको विवक्षित स्थितिके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको यह जीव प्राप्त होता है । तथा अप्रशस्त कर्मोंका अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जो अनुभाग प्राप्त होता है उसके अनन्त बहभागप्रमाण अनुभागका उक्त दोनों प्रकारके परिणामोंके बलसे घात कर उसके अनन्तवें भागप्रमाण अनुभागको प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अधःवृत्तकरणमें स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात न होकर वे गुणश्रेणिनिक्षेपके साथ अपूर्वकरणके प्रथम समयसे प्रारम्भ होते हैं । इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें प्ररूपण करने योग्य चार गाथाओंके विषयका निर्देश करनेके बाद जिन तीन प्रकारके करण परिणामोंके द्वारा दर्शनमोहनीयके उपशम होनेका निर्देश किया है। उनका यहाँ विचार करते हैं। जिन परिणामोंके द्वारा दर्शनमोह और चारित्रमोहका उपशम आदि होता है उन परिणामोंकी करण संज्ञा है । वे परिणाम तीन प्रकारके हैं-अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । जिसमें विद्यमान

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