Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 22
________________ ( २१ ) स्थितिबन्ध तीनों दण्डकोंमें कही गई इन सब प्रकृतियोंका अन्तःकोड़कोड़ी प्रमाण होता है। जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं उनका द्विस्थानीय और जो प्रशस्त प्रकृतियाँ है उनका चतुःस्थानीय अनुभागबन्ध होता है। पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कपाय, पुरुपवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक शरीर आंगोपगि, वर्णादि चार, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, उद्योत, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, यशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन ५४ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है तथा निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संथान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, वजर्षभनाराच संहनन, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वो, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और नीचगोत्र इन १९ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। उसी दूसरी गाथाका तीसरा पाद है-'कदि आवलियं पविसंति । तदनुसार उदय-अनुदयरूपसे कितनी प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं इस पृच्छाका समाधान करते हुए बतलाया है कि पहले जितनी प्रकृतियोंकी सत्ताका निर्देश कर आये हैं वे सब उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। इतनी विशेषता है कि जिन जीवोंने परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध किया है उनको उस आयुकी आबाधा भुज्यमान आयु-प्रमाण होनेसे वह उदयावलिमें प्रवेश नहीं करती है। यहाँ इतना और विशेष जान लेना चाहिए कि परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध होते समय जितनी भुज्यमान आयु शेष रहती है उसका कदलीघात हुए विना निपेक क्रमसे भोग द्वारा ही उसकी निर्जरा होती है। उसी गाथाका चौथा चरण है-'कदिण्हं वा पवेसगो।'-तदनुसार अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें स्थित जीवोंके कितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है इस पृच्छाका समाधान करते हुए बतलाया है कि पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पाँच अन्तराय इन ३५ प्रकृतियोंकी तो नियमसे उदीरणा होती है, क्योंकि यहाँपर ये ध्रुवोदयस्वरूप प्रकृतियाँ हैं। इसलिए इनकी समानरूपसे चारों गतियोंमें उदय-उदीरणा पाई जाती है। इनके सिवाय साता और असाता इनमेंसे किसी एक प्रकृतिको चारों गतियोंमें उदय-उदीरणा पाई जाती है। इसी प्रकार चारित्र मोहनीयकी अपेक्षा ४ क्रोध, ४ मान, ४ माया और ४ लोभमेंसे कोई चार, हास्यादि दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय, जुगुप्सा या दोनों या दोनों नहीं इस प्रकृतियोंकी भी उदय-उदीरणा होती है। अब यदि नारकी है तो उक्त प्रकृतियोंके साथ नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, वैक्रियिक शरीर, हुंडसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकोति और नीचगोत्र इन ग्यारह प्रकृतियोंकी भी उदय-उदीरणा पायी जाती है। यदि तिर्यञ्च है तो ३ वेदोंमेंसे कोई एक वेद, तिर्यञ्चायु, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, औदारिक शरीर आंगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक संहनन, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक, सुभग-दुर्भगमेंसे कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय-अनादेयमेंसे कोई एक, यशःकीर्ति-अयशःकीर्तिमेंसे कोई एक तथा नीचगोत्रकी नियमसे उदय-उदीरणा होती है। यदि मनुष्य है तो तिर्यञ्चोंके समान उदय-उदीरणा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और तिर्यञ्चगतिके स्थानमें मनुष्यायु और मनुष्यगति कहनो चाहिए। तथा मनुष्योंमें उद्योतकी उदयउदीरणा नहीं होती और गोत्रकी दोनों प्रकृतियोंमेंसे किसी एककी उदय-उदीरणा पाई जाती है। यदि देव है तो उक्त प्रकृतियोंके साथ पुरुष या स्त्रीवेद, देवायु, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतु

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