Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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हैं। ऐसे जीवोंके प्रथम समयसे परिणाम कैसे होते हैं, योग व उपयोग आदि कौन-कौन होते हैं इत्यादि बातोंकी पृच्छा उन चार गाथाओंमें की गई है जो सामान्यरूपसे अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्ररूपणायोग्य हैं । वे चार हैं- 'दंसणमोह - उवसामगस्स' इत्यादि ९१, ९२, ९३ और ९४ क्रमांकवाली सूत्रगाथाऐं । उनमें प्रथम सूत्रगाथाका विशेष स्पष्टीकरण चूर्णिसूत्रोंमें और उनकी जयघवला टीकामें करते हुए बतलाया है कि इन जीवोंका परिणाम विशुद्धतर ही होता है, अविशुद्ध नहीं होता । केवल अधः प्रबृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर ही विशुद्धतर परिणाम नहीं होता । किन्तु अधःप्रवृत्तकरणको प्रारम्भ करनेके अन्तर्मुहूर्त पहले से ही ऐसे जीवोंका परिणाम आत्मसन्मुख उपयोग होनेसे प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए विशुद्ध से विशुद्धतर होता जाता है, क्योंकि जो मिथ्यात्वरूपी महागर्तसे निकलकर अलब्धपूर्व सम्यग्दर्शनरूपी रत्नको प्राप्त करने के सम्मुख हैं, जिन्होंने क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंकी सम्पन्नताके कारण अपनी सामर्थ्य को बढ़ाया है और जो संवेग और निर्वेदभावसे युक्त हैं ऐसे जीवोंके परिणामोंमें प्रति समय सहज ही अनन्तगुणी विशुद्धि होती है इसमें सन्देह नहीं । कर्मों ग्रहण में निमित्त रूप जीव प्रदेशोंकी परिस्पन्दरूप पर्यायको योग कहते हैं । ये जीव नियमसे पर्याप्त होते हैं, इसलिए इनके ग्यारह पर्याप्त योगोंमेंसे आहारक काययोगको छोड़कर दस पर्याप्त योगों में से कोई एक पर्याप्त योग होता है । यथा - मनोयोगके चार भेदोंमेंसे कोई एक मनोयोग होता है या वचन योगके चार भेदोंमें से कोई एक वचनयोग होता है या औदारिक काययोग या वैक्रियिक काययोग होता है ।
क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे कषाय चार प्रकारकी है। उनमें से कोई एक कषाय परिणाम होता है । इतनी विशेषता है कि एक तो ऐसे जीवोंका उपयोग परलक्षी न होकर, नियमसे आत्मलक्षी होता है, इसलिए वह कषाय परिणाम उत्तरोत्तर वर्धमान न होकर हीयमान होता है । दूसरे पूर्व संचित पापकर्मोंका अनुभाग द्विस्थानीय तो पहले ही हो गया है । साथही उसमें प्रति समय अनन्तगुणी हानि होती जाती है, इसलिए भी वहाँ होनेवाला कषाय परिणाम उत्तरोत्तर हीयमान ही होता है ।
जीवोंका जो अर्थको ग्रहण करने रूप परिणाम होता है उसे उपयोग कहते हैं । वह दो प्रकारका हैसाकार और अनाकार । अनाकार उपयोगका नाम दर्शनोपयोग है और साकार उपयोगका नाम ज्ञानोपयोग है । यतः अनाकार उपयोग अविमर्शक होनेसे सामान्यरूपसे पदार्थको ग्रहण करता है, अतः ऐसे उपयोग के कालमें विमर्शक स्वरूप जीवादि तत्त्वार्थों की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती, अतः यहाँ साकार उपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग ही स्वीकार किया गया है । उसमें भी मिथ्यात्व गुणस्थानमें तीन कुज्ञान ही सम्भव है, अतः उनमें से कोई एक उपयोग यहाँ होता है यह उक्त स्थलपर जयधवला टीकामें स्वीकार किया गया है । इस विषयकी विशेष जानकारी के लिये पृ० २०४ के विशेषार्थ पर दृष्टिपात करना चाहिए ।
इन जीवोंके उत्तरोत्तर वर्धमान पीत, पद्म और शुक्ल इन तीनों लेश्याओंमेंसे कोई एक लेश्या होती है। यह कथन तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी मुख्यतासे किया है, क्योंकि देवों और नारकियोंमें जहाँ जो लेश्या है वहाँ वह जन्मसे लेकर मरणतक नियमसे बनी रहती है, इसलिए यहाँ नारकियों और देवोंके सम्यग्दर्शन के सन्मुख होने पर कौन लेश्या होती है इसका निर्देश न कर जहाँ एक लेश्या अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं होती ऐसे मनुष्यों और तिर्यञ्चोकी अपेक्षा ही यहाँ ऐसे जीवोंके कौन लेश्या होती है इसका निर्देश किया है । ऐसे मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके अशुभ तीन लेश्याऐं तो होती ही नहीं । शुभ तीन लेश्याओं में कोई एक लेश्या नियमसे वर्धमान ही होती है । यदि अतिमंद विशुद्धिके साथ उक्त जीव सम्यग्दर्शनके सन्मुख हों तो भी उनके जघन्य पीतलेश्यारूप परिणाम देखा जाता है । नारकियोंमें कृष्ण, नील और कापोतमेंसे जिस नरक में जो अवस्थित लेश्या हो वह नियमसे हीयमान ही होती है और देवोंमें पीत, पद्म और शुक्लमेंसे जहाँ जो अवस्थित लेश्या हो वह नियमसे वर्धमान ही होती है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए ।
तीनों वेदोंमेंसे अन्यतम वेद होता है। करणानुयोगमें चौदह मार्गणाओंका कथन नोआगम भावपर्यायको ध्यानमें रखकर ही किया गया है । इसलिए वेद कौन होता है ऐसी पृच्छाके होने पर जो यह उत्तर दिया