Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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पर्यायवाची कहा है। दूसरे परिग्रहके ग्रहण करनेका परिणाम संसारी जीवके आगे-पीछे सदा बना रहता है, इसलिए 'सासद' पदका दूसरा अर्थ शाश्वत करके उसे लोभका पर्यायवाची कहा है। बाहय संयोगके आंशिक त्याग या पूर्ण त्यागका परिणाम लोभविशेषके कारण नहीं होता। जिनकी बुद्धि तत्त्वस्पशिनी है, जिनके उपदेश आदिसे जीवादि प्रयोजनभूत पदार्थोके भेदविज्ञानकी झलक मिलती है ऐसे परुष भी आन्तरिक इस लोभपरिणामके कारण आंशिक या पूर्ण विरति करने में असमर्थ रहते हैं, इसलिये यहाँ अविरतिको लोभका पर्यायवाची कहा है। 'विद्' धातुसे 'विद्या' शब्द बना है, प्रकृतमें उसका अर्थ वेदन करना है। लोभका जन्म वेदनके अधीन है, इसलिए विद्याको लोभका पर्यायवाची कहा है । अथवा विद्या जिस प्रकार दुराराध्य होती है इसी प्रकार लोभके पीछे लगनेवाले जीवकी स्थिति होती है। इसलिये विद्याको लोभका पर्यायवाची कहा है । इष्ट अन्न-पान आदि जितने भी उपभोगके साधन हैं उनके बार-बार भोगने पर भी जीवन में असन्तोष बना रहता है और असन्तोष लोभका पर्यायवाची नाम है। यतः इसे जिह्वेन्द्रियकी अतृप्ति मानी जाती है। इसीलिए इस साधर्म्यको देखकर जिह्वाको लोभका पर्यायवाची माना गया है। इसीप्रकार लोभके अन्य जितने पर्यायवाची नाम यहाँ दिये हैं उनका स्पष्टीकरण समझ लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ उनका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है।
जैसा कि पहले संकेत कर आये हैं इस अर्थाधिकारमें पाँच सूत्रगाथायें हैं। सूत्रगाथाओंके ठीक अनुरूप पाँच आर्याछन्द जयधवला टीकाकारके सामने रहे हैं जो सूत्रगाथाओंके व्याख्याके अन्तमें दिये गये हैं।
१०सम्यक्त्व-अर्थाधिकार यह सम्यक्त्व नामका महा अर्थाधिकार है। इस महाधिकारमें औपशमिक आदि तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें से प्रथमोपशम और क्षायिक दोनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंकी उत्पत्तिका बिचार किया गया है, इसलिए यह महाधिकार दर्शनमोहोपशामना और दर्शनमोहक्षपणा इन दो उप-अर्थाधिकारों में विभक्त हो जाता है। उनमेंसे सर्वप्रथम दर्शनमोहोपशामना अर्थाधिकारका निरूपण किया गया है। जो सूत्रगाथाएँ मात्र दर्शनमोहोपशामना नामक अर्थाधिकारसे सम्बन्ध रखती हैं वे कुल १५ हैं। उनका विवेचन चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ आचार्यने अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करणोंका विशद विवेचन करनेके बाद सबके अन्तमें किया है।
___ इस अधिकारका प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम चार प्रकारके अवतारका संक्षेपमें उल्लेख किया है। वे चार अवतार हैं-उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम । उपक्रम पाँच प्रकारका है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और यत्र-तत्रानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा यह दसवाँ अर्थाधिकार है। पश्चादानपर्वीकी और यत्र-तत्रानुपूर्वीकी अपेक्षा अनिर्धारित संख्यावाला यह अर्थाधिकार है। कषायप्राभूत यह गौण्य नामपद है। अक्षरोंकी अपेक्षा इसका प्रमाण संख्यात और अर्थकी अपेक्षा असंख्यात और अनन्त है। वक्तव्यता-स्वसमय और तदुभय वक्तव्यता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी प्ररूपणाके अविनाभावस्वरूप है। अर्थाधिकार दो प्रकारका है-दर्शनमोह-उपशामना और दर्शनमोह-क्षपणा। सम्यक्त्व पदका नाम, स्थापना आदि जितने अर्थो में निक्षेप होता है उसे करके और उन निक्षेपोंमें कौन निक्षेप किस नयका विषय है यह बतलाकर प्र भावनिक्षेपसे प्रयोयन है ऐसा समझना चाहिए। - इसके बाद अनुगमका निर्देश करते हुए अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें प्ररूपण करने योग्य 'दंसणमोह-उवसामगस्स' इत्यादि चार गाथाओंका उल्लेख किया है। इन चार गाथाओंमें जिस विषयको पुच्छा की गई है उसका निर्देश करनेके पूर्व 'दर्शनमोह-उपशामना 'अर्थाधिकारमें प्ररूपित अर्थका सर्वप्रथम उल्लेख कर देना प्रयोजनीय है। यथा-यह तो स्पष्ट है कि प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति मति-श्रुत उपयोगद्वारा ज्ञायकस्वभाव निज आत्मामें उपयुक्त होनेपर ही होती है, अतः ऐसे जीवको नियमसे संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त होना चाहिए । यही कारण है कि आगममें एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चन्द्रिय तक सभी जीव इसके ग्रहणके आयोग्य बतलाये गये हैं। असंज्ञियोंमें तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें से किसी भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं .