Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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होती यह भी इससे स्पष्ट है । संज्ञियोंमें भी यदि वे नारकी और देव हैं तो पर्याप्त होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद ही वे इसे उत्पन्न करनेके लिए योग्य होते हैं। नारकियोंमें तो सातों नरकोंके नारकी पर्याप्त होनेपर प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करने के योग्य हैं और देवोंमें चाहे वे अभियोग्य देव हों, चाहे अनभियोग्य देव हों, भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और नौवें ग्रैवेयक तकके विमानवासी देव तद्योग्य सामाग्रीके सद्भावमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके लिए अधिकारी हैं ।
मनुष्यों और तिर्यञ्चों में जो सम्मूर्च्छन जीव हैं वे तो प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके पात्र ही नहीं । गर्भजों में भी जो मनुष्य और तिर्यञ्च पर्याप्त हैं वे ही प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके अधिकारी हैं । उसमें भी कर्मभूमिज मनुष्य पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आठ वर्षके होने चाहिए तथा भोगभूमिज मनुष्य उनचास दिनके होने चाहिए, तिर्यञ्चों में भी वे दिवसपृथक्वके होने चाहिए । यहाँ दिवसपृथक्त्व शब्द सात-आठ दिनका वाची न होकर बहुत दिवसपृथक्त्वोंका वाची है ।
चारों गतियोंके जीवोंमें प्रथम सम्यक्त्त्वके ग्रहणके योग्य कौन जीव हैं इसका यह सामान्य विचार है । उसमें भी जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव हैं वे क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंसे सम्पन्न होने चाहिए। जो सादि मिथ्यादृष्टि जीव हैं उनका वेदक काल व्यतीत होने पर वे भी चार लब्धियोंसे सम्पन्न होने चाहिए । इस प्रकार इतनी योग्यतावाले भव्य जीव ही काललब्धि आनेपर स्वात्मोन्मुख स्वपुरुषार्थद्वारा प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होते हैं । वे चार लब्धियाँ हैं— क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्य लब्धि । विशुद्धि बलसे पूर्वमें, संचित हुए कमोंके अनुभाग स्पर्धकोंका प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन होकर उदीरित होना क्षयोपशमलब्धि है । प्रतिसमय अनन्तगुणे हीन होकर उदीरित होनेवाले अनुभागस्पर्धकोंके निमित्त से असाता आदि अशुभ प्रकृतियोंके बन्धके विरुद्ध सातादि शुभ प्रकृतियोंके बन्धके योग्य जीवोंके परिणामोंकी प्राप्ति होना विशुद्धिलब्धि है। छह द्रव्य और नौ पदार्थोंके उपदेशका नाम देशना है । उस देशनासे युक्त आचार्य आदिका मिलना तथा उनके द्वारा उपदिष्ट अर्थके ग्रहण करने, धारण करने और विचार करनेकी शक्तिका प्राप्त होना देशनालब्धि है । तथा सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागका घात होकर उनका क्रमसे अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिमें और द्विस्थानीय अनुभागमें अवस्थान होना प्रायोग्य लब्धि है । यहाँ अनुभागकी अपेक्षा सब कर्मोंमें पुण्यकर्म विवक्षित न होकर शेष सब कर्म लिये गये हैं इतना विशेष जानना चाहिए, क्योंकि उक्त विशुद्धिको निमित्तकर पुण्य कर्मोंका अनुभाग क्षीण न होकर वृद्धिको प्राप्त होता है ।
यहाँ देशना लब्धिके प्रसंगसे जो आचार्य आदि पदका ग्रहण किया है सो उससे मोक्षमार्ग के अनुरूप उपदेशदेते हुए सम्यदृष्टियोंका ग्रहण किया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए, क्योंकि जीवस्थानकी नौवीं चूलिकामें प्रथमादि तीन नरकोंमें ऋषियोंका गमन न होनेसे वहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बाह्य साधन धर्मश्रवण नहीं बन सकता ? किसी शिष्य द्वारा ऐसी आशंका करनेपर आचार्यदेव वीरसेनस्वामी उक्त शंकाका समाधान करते हुए लिखते हैं कि वहाँ पूर्वभवके सम्बन्धी, धर्मके ग्रहण करानेमें लगे हुए तथा सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित ऐसे सम्यग्दृष्टि देवोंका वहाँ गमन देखा जाता है, अतः प्रारम्भके तीन नरकों में धर्मश्रवणरूप बाह्य साधन बन जाता है । उल्लेख इस प्रकार है
कथं तसं धम्मसुणणं संभवदि, तत्थ रिसीणं गमणभावा ? ण, सम्माइट्टिदेवाणं पुव्वभवसंबंधीणं धम्मपदुप्पायणे वावदाणं सयलबाधाविरहियाणं तत्थ गमणदंसणादों । पु. ६, ४३३ ।
इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टियोंके द्वारा मिला हुआ मोक्षमार्ग के अनुरूप उपदेश हो अन्य जीवोंमें प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका निमित्त होता है, अन्य मिथ्यादृष्टियों के द्वारा दिया गया उपदेश प्रथमोशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें बाह्य साधन नहीं होता ।
ये चार लब्धियाँ हैं । इन चार लब्धियोंसे सम्पन्न उक्त योग्यतावाले जीव जब काललब्धिके योगमें वस्पुरुषार्थद्वारा करणलब्धिके सन्मुख होते हैं तब वे जीव सर्वप्रथम अधःप्रवृत्तकरणरूप विशुद्धिको प्राप्त होते