Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
* सोप पंयडिट्टिदि - अणुभाग- पदे सबंध बहुसो परूविदो ।
$ १२. सो उण गाहाए पुव्वद्धम्मि णिलीणो पयडि-हिदि-अणुभाग-पदेसविसओ बंधो बहुसो गंथंतरेसु परूविदो त्ति तत्थेव तव्वित्थरो दट्ठव्वो, ण एत्थ पुणो परूविजदे, पयासि पयासणे फलविसेसाणुवलंभादो । तदो महाचंधाणुसारेणेत्थ पयडि-ट्ठिदिअणुभाग- पदे बंधे विहासिय समत्तेसु तदो बंधो समत्तो हो ।
* संकमे पदं ।
[ बंधगो ६
$ १३. जहा उद्देसो तहा णिद्देसो ति णायादो बंधसमत्तिसमणंतरं पत्तावसरो संकम महाहियारो त्ति जाणावणडुमेदं सुत्तमागयं । एवं च पयदस्स संकमाहियारस्स उवकमो णिक्खेवो णओ अणुगमो चेदि चउव्विहो अवयारो परूवेयव्वो, अण्णहा तदणुगमोवायाभावादो । तत्थ ताव पंचविहोवकमपरूवणडुमुत्तरमुत्तमोइण्णं
* किन्तु उनमेंसे प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध ओर प्रदेशबन्धका बहुत बार प्ररूपण किया गया है ।
१२. किन्तु गाथाके पूर्वार्ध में जो प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध अन्तर्भूत हैं ऐसे बन्धका ग्रन्थान्तरोंमें बहुतबार प्ररूपण किया है, इसलिए उसका विस्तृत विवेचन वहीं पर देखना चाहिये । यहाँ पर उसका फ़िरसे कथन नहीं करते हैं, क्योंकि प्रकाशित हुई वस्तुके पुनः प्रकाशन करनेमें कोई विशेष लाभ नहीं है । इसलिये महाबन्धके अनुसार प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्ध का यहाँ व्याख्यान कर लेनेपर बन्ध अनुयोगद्वार समाप्त होता है ।
विशेषार्थ – 'कदि पयडीओ' इत्यादि गाथामें प्रकृतिबन्ध आदि चार प्रकारके बन्धों और प्रकृतिसंक्रम आदि चार प्रकारके संक्रमोंका निर्देश किया है। यद्यपि गाथा के उत्तरार्ध में प्रकृति, स्थिति और अनुभागपदका स्पष्ट निर्देश नहीं है पर गाथाके पूर्वार्ध में ये पद आये हैं, अतः इनका वहाँ भी सम्बन्ध कर लेनेसे 'संकामेदि कदि वा इस पदद्वारा प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, और अनुभाग संक्रमका सूचन हो जाता है। इस प्रकार चूर्णिसूत्रकारने प्रारम्भमें जो 'बंधक' इस अधिकार में बन्ध और संक्रम इन दोनों के अन्तर्भाव करनेका निर्देश किया है सो वह इस गाथाके अनुसार ही किया है यह ज्ञात हो जाता है । यद्यपि इस प्रकरणमें चारों प्रकारके बन्धोंका भी निर्देश करना चाहिये था पर नहीं करने का कारण चूर्णिकारने यह बतलाया है कि उसका अनेकवार कथन किया जा चुका है अतः यहाँ नहीं करते हैं। आशय यह है कि महाबन्ध आदिमें बन्धप्रकरणका विस्तृत विवेचन किया ही है अतः यहाँ उसका निर्देश नहीं किया गया है । तथापि महाबन्धसे यहाँपर इस प्रकरणको पूरा कर लेना चाहिये ।
* अब संक्रमका प्रकरण है ।
$ १३. उद्देश्य के अनुसार निर्देश किया जाता है इस न्यायके अनुसार बन्ध प्रकरणकी समाप्ति के बाद अब संक्रम महाधिकारका वर्णन अवसर प्राप्त है यह बतलाने के लिये यह सूत्र आया है । इस प्रकार प्रकरणप्राप्त संक्रम अधिकारका उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम इस रूप से चार प्रकारके अवतारका कथन करना चाहिये । नहीं तो उसका ठीक तरहसे ज्ञान नहीं हो सकता । इसमें पहले पाँच प्रकार के उपक्रमका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
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