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* श्री वर्द्धमान जिनविजय
श्री कर्मविपाक नामक ग कर्मग्रन्थ प्रारम्भः ॥
सिरि वीर जिणं वंदिय, कम्म विवागं समास कुच्छं । कीरह जिरण हेउहिं, जेणं तो भरणए कम्मं ॥ १ ॥
अष्ट महा प्रातिहार्य रूपी बाह्य लक्ष्मीयुक्त, केवल ज्ञानादि रूपी अंतरंग लक्ष्मीयुक्त, चौंतीस अतिशयादि रूपी बाह्य लक्ष्मी से सुशोभित, कर्मशत्रु को जय करने वाले, और तपश्चर्या रत्न से विभूषित ऐसे अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु को नमस्कार करके आठ कर्मों के फलों को बतलाने वाले श्री कर्मविपाक सूत्र को संक्षेप से आरंभ करते हैं ।
जिन सत्तावन बन्ध ( ५ मिथ्यात्व
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१२ अविरति, २५ कषाय और १५ योग ) हेतुओं से जीव क्रिया करता है उनको
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शास्त्रों में कर्म कहा है - जैसे कोयले की कोठरी में यदि कोई
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