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ज्ञानावरणीय ( ज्ञान के आवरण) का स्वरूप,
पूर्व गाथाओं में बतलाये अनुसार मति आदि ५ प्रकार के ज्ञान को जो आवरण करते हैं अर्थात् जैसे आंख को पाटा बांधने से आँख का तेज ढक जाता है इस ही प्रकार मति ज्ञानावरणीय कर्म मति को नहीं बढने देते हैं । श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म विद्याध्ययनादि में विघ्न करते हैं । अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान प्राप्त करने में रोकते हैं । मनः पर्यवज्ञानावरणीय कर्म मनः पर्यवज्ञान को रोकते हैं और केवल ज्ञानावरणीय कर्म केवल ज्ञान को रोकते हैं ।
जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश को बादल ढककर उसकी प्रभा को रोक देते हैं तथापि सूर्य है इतना बतलाने को प्रकाश कुछ अंश में तो अवश्य रहता है इस ही प्रकार श्रावरण होनेपर भी ज्ञान का कुछ अंश प्रत्येक जीव में अवश्य रहता है अर्थात् ज्ञान रहित कोई भी जीव नहीं है ।
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चेतना चैतन्यता को कहते हैं और जिसमें चेतना है? उसको सचित् कहते हैं और चेतना रहित को अचित्' अथवा जड़ कहते हैं ।
शुद्ध जीव सिंद्ध भगवान का है उसको केवल ज्ञानी ही देख सक्ते हैं और कर्मधारी जीव की चेष्टाओं से चार ज्ञान वाले उसे जानते हैं कि वह जीव है वा जीव है ।
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