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सुर नर तिरि निरयाउ, हडिसरिसं नाम कम्म चित्तिसमं । बायाल तिनवह विहं, उत्तर ति सयं च सत्तट्ठी ॥ २३ ॥
आयु कर्म और उसके ४ भेद |
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• जितने समय तक जीव स्थूल शरीर रूपी बंधन में रहता है उस समय को आयु कहते हैं जैसे अपराधों के कारण कैदी को कैद की अवधि पूरी होने तक कैदखाने में ही रहना पड़ता है वैसेही जिस कर्म से जीव स्थूल शरीर रूपी बंधन में आयु पर्यंत रहना पड़ता हैं उसको आयु कर्म कहते हैं
आयु कर्म के चार भेद हैं ।
१. देव आयु कर्म - जिस कर्म के उदय से देवता की आयु पर्यंत देवता के शरीर रूपी बंधन में जीव रहता है उसको देव आयु कर्म कहते हैं ।
२ मनुष्यायु कर्म - जिस कर्म के उदय से मनुष्य की आयु तक जावे मनुष्य के शरीर रूपी बंधन में रहता है उसको मनुध्यायु कर्म कहते हैं
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३ तिर्यचायु कर्म - जिस कर्म के उदयसे तिर्यच की आयु पर्यंत जीव तिर्यचः के शरीर रूपी बंधन में रहता है उसको ति च आयु कर्म कहते हैं ।
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