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(६८) क-बाल पंडित वीयांतराय कर्म जिस कर्म के उद्रय से देशविरति अर्थात् श्रावक धर्म पालन करने की इच्छा होते हुवे भी पालन न कर सके उसको वाल पंडित वायांतराय कर्म कहते हैं.
सिरि हरित्र समं एग्रं, जह पडिकूलेण तेण रायाई, नकुणइ दाणाई अं, एवं विग्घेण जी-' वोवि ॥ ५३॥
जैसे कोषाध्यक्ष (खजानची) के देने पर ही राजा द्रव्य को दान कर सक्ता है. लाभार्थ द्रव्य उपयोग में ला सक्ता हैं द्रव्य का भोग उपभोग कर सकता है शक्ति का भोग कर सका है किन्तु खजानची की अनुपस्थिती में इच्छा होने पर भी राजा कुछ नहीं कर सका इस ही प्रकार जीव अंतराय कर्म के कारण दान लाम भोग उपभोग और वीर्य को उपयोग में नहीं ला सका है. कों की ८ मूलप्रकृति की १५८ उत्तर प्रकृतियों की सूची.
८ कर्म की मूल प्रकृति। १ ज्ञानावरणीय कर्म २ दर्शनावरणीय कर्म ३ वेदनीय कर्म ४ मोहनीय कर्म ५ आयुकर्म
६'नाम कर्म ७ गोत्र कर्म
८ अंतराय कर्म .