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गुणप्रेक्षी होना ज्ञान, दर्शन और चारित्रादि गुण जितने अपने में होवे उतने ही प्रगट करना अथवा औरों को बतलाना किसी के अवगुण देखकर निंदा न करना, अपने जाति, कुल
बल, रूप, श्रुत, ऐश्वर्य, लाभ और तप इन आठ संपदाओं से
युक्त होते हुवे भी इनका मद नहीं करना, सूत्र पढना पढाना, अर्थ की रुचिकरंना कराना वाल जीवों को धर्म में प्रवृत्त करना तीर्थकर प्रवचन संघ आदि का बहुमान ( हार्दिक सत्कार ) करना आदि उत्तम गुणों से उच्चगोत्र कर्म का बंधन होता है. उपरोक्त गुणों से विपरीत अवगुणों से नीच गोत्र कर्म का बंधन होता है.
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जिपुत्रा विग्धकरो, हिंसाइ परायणे जयह विग्धं, इय कम्मविवागो, लिहित्रो देविंदसूरीहिं ॥ ६० ॥
श्रीजिनेंद्र भगवान की पूजा का निषेध करना, पूजा में जल कुसुमादि के उपयोग को हिंसामय बतलाना, पूंजा में किसी को विघ्न पहुंचाना, पूजा से किसी को रोकना, पूजा की निंदा करना आदि से अंतराय कर्म का बंधन होता है.
श्रीजिनेंद्र भगवान पर और उनके वचनों पर दृढ श्रद्धा करने के लिये वीतराग भगवान की पूजा की परम आवश्यक्ता है.
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