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पश्चात् छद्मस्थ अवस्था में रहते हुवे भोगावली कर्म वाकी हो, तो विवाहादि भी करते हैं पश्चात् दान द्वारा दरिद्रियों के दुख दूर करं स्वयं दिक्षा ग्रहण करते हैं पश्चात् जब उनको केवलज्ञान होता है तब देवता समवसरण की रचना करते हैं जहां देव देवी मनुष्य स्त्री तिर्यंच आकर उनका बहुमान करते हैं और उपदेश सुन सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं कितनेक मनुष्यं स्त्री उनके पास दीक्षा लेकर साधु साध्वी होते हैं जिनको तीर्थंकर यथायोग्य गणधर आचार्य उपाध्याय साधु साध्वी आदि पद देते हैं और देश विरति धर्म ग्रहण करने वालों को श्रावक श्रविकादि पद देते हैं इस प्रकार परम पूज्य परमात्मा जगदीश्वर तीर्थंकर भगवान का धर्मोपदेश सुनकर अनेक जीव मोक्ष जाते
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अनेक जीवों को केवलज्ञान और अनेक जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त होता है । साधु साध्वी श्रावक श्राविका इस प्रकार चतुर्विध संघरूपी जंगम तीर्थ की स्थापना करने से इनको तीर्थंकर कहा जाता है यही परम ईश्वर ( परमेश्वर ) है जो कि सच्चे ज्ञान का उपदेश करते हैं इस भव समुद्र से स्वयं तरते हैं अर्थात् मुक्त होकर सिद्ध पद प्राप्त करते हैं और अनंत जीवों को तारते हैं विशेष गुरु गम से जानकर इन्हीं तीर्थंकर वीतराग भगवान का ध्यान वंदन स्तवन पूजन आदि करना चाहिये जिससे हमें श्री वही वीतरागता प्राप्त होकर हमारी भी मुक्ति हो । इन्हीं के