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(३१) दुःख तो सवको ही अप्रिय है उसको कोई नहीं चाहता है.ज्ञानी पुरुष पूर्वकृत पापानुसार दुख आपड़ने पर सहन शीलता से दुःख भी भोग लेते हैं और ज्ञान द्वारा कर्ममुक्त होते हैं। ... प्रायः नरक और निगोद में सबसे अधिक दुःख है तिर्यच में न्यून सुख और अधिक दुःख है. देवलोक और मनुष्य में मायः अधिक सुख है । (किन्तु स्मरण रहे.कि नरंक और निगोद के जीवों को भी तीर्थंकरों के कल्याणकादि समय पर थोड़े समय के लिये सुख हुआ करता है वैसे देवताओं को भी कभी पारस्परिक द्वेष के कारण. दुःख हुआ करता है इस ही. कारण ओसन्न अर्थात् मायः शब्द का यहां उपयोग किया गया है)
मभंव मोहणीनं, दुविहं दंसणं चरण. मोहा ॥ १३ ॥.. ..... ... ... !
__ मोहनीय कर्म का स्वरूप और उसके दो भेद। .:: '' जैसे मदिरा पीये हुवे मनुष्य को अपने हिताहित का ज्ञान नहीं रहता है वैसे ही मोहनीय कर्म के कारण जीव को आत्म हित अहित का ज्ञान नहीं होता है मोहनीय कर्म के दो भेद हैं।
१ दर्शन मोहनीय, २ चारित्रं मोहनीय । - देसण मोहं तिविह, सम्ममीसं तहेव मिच्छतं, सुद्धं अद्ध विसुद्धं, अविसुद्धं तं हवइ कमसो॥१४॥