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(४३) इसही विपय में निम्नलिखित विवरण में विशेप बतलाते हैं.
जा जीव वरिस चउमास, पक्खग्गा निरय, - तिरिय नर अमरा । सम्माणु सम्बविरई, अंह खाय चरित्त घायकरा ॥ १८ ॥
(क) जो क्रोधादि कपायों के कारण परस्पर विरोध होगया हो उसके लिये संवत्सरी (वार्षिक) प्रति क्रमण करके नक्षमा करे और न क्षमा मांगे और मनमें द्वेष ही रक्खे यदि ऐसे द्वेष को जीवन पर्यंत रक्खे और मृत्यु समय भी उसके लिये न क्षया मांगे और न क्षमा करे तो सम्यक्त्वं प्राप्त न होवे और प्रायः नरक गति में जाता हैं ऐसे क्रोधादि अनंतानुबंधी होते हैं यदि इनके लिये प्रत्येक चौमासी प्रतिक्रमण में क्षमा ने की हो न मांगी हो किंतु संवत्सरी प्रति क्रमण करके क्षमा मांगलें और क्षमा करदे तो सम्यक्त्व की प्राप्ति भी होसक्ती है
. .(ख) जो चौमासी प्रतिक्रमण करके न . क्षमा मांगी हो न जमा की हो और द्वेप ही रक्खा हो तो देश विरति: धर्म नहीं मिल सक्ता हैं.और उसकी मृत्यु होने पर प्रायः तिर्यंच गति में जाता है उसे अप्रत्याख्यानी क्रोधादि कहते हैं: