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. (४१) मोहणियं; अण अप्पचक्खाणा, पञ्चक्खाणाय संजलणा ॥१७॥ . चारित्र मोहनीय और उसकी २५ प्रकृत्रियों का स्वरूप । श्रात्मा की शुद्ध प्रवृत्ति अर्थात् आत्म रमणता में आत्मा की चेष्टा रहे और पुद्गलों से और बाह्य क्रियादि से रमणता छूट जावे इसको भाव चारित्र कहते हैं किन्तु क्रोधादि कषायों के कारण आत्म रमणता नहीं होसक्ती है अतएव इन क्रोधादि कथायों को चारित्र मोहनीय कर्म का उदय समझना चाहिये. चारित्र मोहनीय की २५ प्रकृतियें इस प्रकार होती हैं:- .
क्रोध, मान माया और लोभ ये जो ४ कषाय हैं इन के प्रत्येक के चार २ भेद होते हैं. . - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन इस प्रकार १६ प्रकृति हुई और कषाय के सम्बन्धी ही हनव नो कषाय होते हैं इस प्रकार सर्व मिलकर चारित्र मोहनीय की २५ प्रकृतियें होती हैं. . . . . . . .. श्रीमद शीलांगाचार्य ने इन २५ में से ४ अनंतानुबंधी की प्रकृतियें दर्शन मोहनीयं में ली हैं क्योंकि इनः चार; सें. दर्शन मोहनीय भी होता है। , . . . . . . . . .....
अर्थात् मोहनीय की जो २८ प्रकृति होती हैं वे एक अपे