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( २६) निद्राओं का संबन्ध नहीं है किन्तु युवान और निरोगी आदि की निद्रा से तात्पर्य है।
दिणंचिंति अत्थ करणी, थीणद्धी श्रद्ध चकि श्रद्धवला।
पांचवीं थीनद्धी निद्रा का स्वरूप । उपरोक्त ४.प्रकार की निद्राओं के अतिरिक्त थीनद्धी (स्त्यानाई ) नामक पांचवीं निद्रा है इस निद्रा में अर्द्ध चक्रवर्ती अ
र्थात वासुदेव से आधा वल रहता है इस वल से निद्रा ही में हाथी के दातों को उखाड़ फेंक देता हैं इस निद्रा में बल का दुरुपयोग ही होता हैं। ...
यदि किसी दिक्षित साधु को ऐसी निद्रा आती हो तो - सके गुरू उसको निकाल देते हैं । वर्तमान में ऐसी निद्रा किसी भी प्राणी को नहीं होती है। ऐसी निद्रा वाला प्राणी मरने पर अवश्य नरक जाता है। "
उपरोक्त निद्राओं से आत्मा को पदार्थ को जानने और देखने में आवरण अर्थात् विघ्न होते हैं इसलिये इनको दर्शना वरणीय कर्म कहते हैं ।
महुलित खग्गधारा, लिहणं वदुहाउने प्रणिनं ॥ १२॥ .