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अर्थात् गुण स्वभाव होते हैं इसही प्रकार कर्म जैसी प्रकृति के किये जाते हैं वैसी ही प्रकृति के आत्मा को अनुभव होते हैं।
२ स्थिति - जैसे मोदक की स्थिति उसके अन्दर की वस्तु के अनुसार ही होती है वैसेही कर्मों का बंध जितना होता है श्रात्मा को भी उतनी ही स्थिति तक अनुभव होता है ।
३ रस - जैसे मोदक उसके अंदर की वस्तु के रस के अनुसार ही मीठा वा कटु, नम्र वा कठोर होता है वैसेही कर्म जिस प्रकार किये गये हों उसही प्रकार न्यूनाधिक सुखदायी दुखदायी आत्मा को अनुभव होते हैं ।
४ प्रदेश - जैसे मोदक उसके अंदर की वस्तु के प्रदेशों के अनुसार ही भारी हलका होता है वैसेही कर्म पुद्गल जिस प्रकार और जितने संगठित हुवे हों उतने और उसी प्रकार कर्म प्रदेश आत्म प्रदेशों के साथ हलके वा गहरे मिलते हैं ।
इन चारों भेदों का विशेष स्वरूप विस्तार से आगे बतायेंगे ।
कर्मो की प्रकृति २ प्रकार की होती है । ।
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१- मूल प्रकृति- मूल प्रकृति के आठ भेद हैं ।
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- उत्तर प्रकृति- उत्तर प्रकृति के १५८ भेद हैं ।
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इहना दंसणवर, ग वेत्र मोहाउ नाम गाणी | विग्धं च पण नव दुध, द्ववीस तिसय दुपविहं ॥ ३ ॥
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