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और शुक्ल ध्यानादि से विनाश होजाने पर कर्मों का सम्वन्ध जीव के साथ नहीं रह सक्ता । वही जीव जिसका कर्म सम्ब न्ध छूट गया है शुद्ध आत्मा, परमात्मा कहा जाता है। जैन शास्त्रों में उस कर्म मुक्त जीव का नाम सिद्ध है। पूर्व में ऐसे अनन्त सिद्ध होगये हैं जो अपने कर्मों का विनाश कर मोक्ष में गये । ऐसे अनन्त होगये हैं और होते रहेंगे ।
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rava प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि भवः भ्रमण से छूटने के लिये कर्मों का स्वरूप समझकर कर्म बंधन के ५७ कारणों से दूर रहने को यथाशक्ति प्रयत्न करें यह ही कर्म-ग्रंथ पढने का सार है ।
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प्रथम कर्म ग्रंथ में आठ मूल कर्म और उनकी १५८८ प्रति विभाग प्रकृतियों का स्वरूप कहते हैं ।
यह ठिइ रसपरसा, तं दिट्ठता । मूल : पगट्ठ उत्तर, सयभेां ॥ २ ॥
कर्म के बंध के ४ मेद ।
हा मो पगइ अडवन्न.
कर्म के बंध के ४ भेद मोदक का दृष्टांत देकर समझाते हैं । ..१ प्रकृति-जैसे मोदक (लड्डू) जिस वस्तु का बना हुवा हो उस वस्तु के गुण स्वभाव के अनुसार ही मोदक की मकृति