________________ (9) लगाना चाहिए और उसे व्यवस्थित सम्पादन और पाठालोचन के बाद प्रकाश में लाना चाहिए। इससे उस समय के भाषारूप पर तो प्रकाश पड़ेगा ही, साथ में श्रीमद् के भाषाधिकार को ले कर भी एक नये अध्याय की विवृत्ति होगी। टीका में कई अन्य विषयों के साथ 4 तीर्थंकरों के सम्पूर्ण जीवनवृत्त भी दिये गये हैं; ये हैं- भगवान महावीर, भगवान पार्श्वनाथ, नेमीश्वर तथा तीर्थंकर ऋषभनाथ। इनके पूर्वभवों, पंचकल्याणकों तथा अन्य जीवन-प्रसंगों का बड़ा जीवन्त वर्णन हुआ है। स्थान-स्थान पर लोकाचार का चित्रण भी है। अन्त में स्थविरावली इत्यादि भी हैं। टीका के आरम्भिक पृष्ठों में श्रीमद् ने अपने आकिंचन्य को प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है : "हुँ मंदमति, मूर्ख, अज्ञानी, महाजड़ छतां पण श्रीसंघनी समक्ष दक्ष थइने आ कल्पसूत्रनी व्याख्या करवानु साहस करुं छु। व्याख्यान करवाने उजमाल थयो छु। ते सर्व श्रीसद्गुरुनो प्रसाद अने चतुर्विध श्रीसंघ- सांनिध्यपणुं जाणवं. जेम अन्य शासनमां कहेलुं छे के श्रीरामचन्द्रजी सेनाना वांदराओए महोटामहोटा पाषाण लइने समुद्रमा नांख्या ते पथरा पोते पण तऱ्या अने लोकोने पण ताऱ्या-ते कांइ पाषाण नो तथा समुद्रनो अने वांदराओनो प्रताप जाणवो नही, परंतु ते प्रताप श्रीरामचन्द्रजीनो जाणवो; केमके पत्थरनो तो एवो स्वभाव छे जे पोते पण बूडे अने आश्रय लेनारने पण बूडाडे. तेम हुँ पण पत्थर सदृश छतां श्री कल्पसूत्रनी व्याख्या करूं छु तेमां माहारो कांइ पण गुण जाणवो नहीं।" (क.सू.बा.टी. पृष्ठ 1) / इस तरह अत्यन्त विनयभाव से श्रीमद् ने इसका लेखन आरम्भ किया और जैन समाज को नवधर्म शिक्षा के क्षितिज पर ला खड़ा किया। ___इस टीका की एक अन्य विशेषता यह है कि यह गुजराती भाषा में प्रकाशित है; किन्तु नागरी लिपि में मुद्रित है। जिस काम को सन्त विनोबा भावे आज करना चाहते हैं; वह काम आज से करीब 92 वर्ष पूर्व कल्पसूत्र की इस बालावबोध टीका के द्वारा शुरु हो गया था। सम्पूर्ण टीका नागरी लिपि में छपी हुई है। इससे इसकी पहुँच तो बढ़ ही गयी है, साथ ही साथ उस समय के कुछ वर्षों का क्या मुद्रणआकार था, इसकी जानकारी भी हमें मिलती है। इ, भ, उ, द, द्र, ल, छ, क्ष इत्यादि के आकार दृष्टव्य हैं। अब इनमें काफी अन्तर आ गया है। इस तरह यह टीका न केवल धार्मिक महत्त्व रखती है, वरन् भाषा, लिपि और साहित्य; चिन्तन और सद्विचार की दृष्टि से राष्ट्रीय महत्त्व की भी है। हमें विश्वास है 'कल्पसूत्र' की मूल पाण्डुलिपि के सम्बन्ध में पुनः छानबीन आरम्भ होगी और उसे प्राप्त किया जा सकेगा। (तीर्थकर जून 1975 - श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर विशेषांक) -FU