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जीवन का उत्कर्ष
के उस पार उदय हो रहा है। सूर्य तो वही है। स्वयं को पृथ्वी के धरातल से उठाकर सूर्य की ऊँचाई तक ले चलो। अब तुम्हें सूर्य हमेशा दृष्टिगोचर होगा। अपने भीतर के सूर्य से अभिज्ञ रहो, तुम्हारे अंदर अपरिवर्तनशील जीवन है।'
निरंतर होते परिवर्तनों के पीछे कायम है स्थिरता। परिवर्तन भी स्थिरता की अविरल उपस्थिति का संकेत ही है।
जैसे ही एक सूखा पत्ता गिरता है, उसकी जगह एक हरा पत्ता उगने लगता है। अगर हम सजग हैं, तो जान लेंगे कि उस नन्हें नए पत्ते के पीछे अपरिवर्तनशील जीवन का सौंदर्य है। उसी जीवन के कारण एक आकार गिरता है और दूसरा आकार उभरता है। पुराने पत्ते की आत्मा एक नया रूप धारण कर चुकी है जिसमें और अधिक ऐंद्रिय उपकरण हैं जिनके माध्यम से इस जगत् का नवीन और सूक्ष्म तरीकों से प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
हम देख रहें हैं कि सारी सृष्टि अभिज्ञता के उच्चतर सोपानों पर बढ़ना चाहती है। इसके लिए परिवर्तन अवश्यंभावी है। परिवर्तन के कारण ही अपरिवर्तनशील हर क्षण स्वयं को ताज़गी के साथ प्रकट करता है। उसके बिना न ही विकास है, न नवीनीकरण।
जब हम निश्चित रूप से समझ जाते हैं कि परिवर्तन विकास के लिए है एवं विकास हमारी आंतरिक दिव्यता की अभिज्ञता के लिए है, तभी हमें मुक्ति की प्रेरणा मिलेगी, जानी-पहचानी वस्तुओं से बँधने की आदत से मुक्ति। तभी हम बदलाव के भय की बेड़ियों से उन्मुक्त होने के लिए आतुर होंगे।
जब यह सत्य हमारी चेतना में पहुँचेगा, एक नया द्वार खुल जाएगा। हमारी कट्टर दृष्टि बदलने लगेगी। 'लुप्त,' 'गायब,' 'विलीन,' 'मौत' आदि शब्दों के अर्थ स्पष्ट हो जाएँगे, ये शब्द खोखले हैं, मार्गच्युत करने वाले हैं, ऐसे शब्द सिर्फ हमारी भौतिक दृष्टि पर आधारित हैं, हमारी अंतर्दृष्टि पर नहीं। इसलिए जो एक के लिए 'मृत्यु' है, वही दूसरे के लिए 'जन्म' है, दोनों एक ही सागर रूपी जीवन की तरंगें हैं।
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