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सप्तम - आश्रव भावना कंपनों के अंतःप्रवाह पर चिंतन
जो साधक मुक्ति के पथ पर चल रहा है, उसे अपना संतुलन नहीं खोना चाहिए। तनी हुई रस्सी पर चल रहे नर्तक के समान यदि एक भी कदम लड़खड़ा जाए, तो वह एक ही झटके में ज़मीन पर गिर पड़ेगा और चोट लग जाएगी। इसीलिए वह जागरूक रहने का अभ्यास करता है। वह अपने प्रत्येक कदम का बारीकी से निरीक्षण करता है। मन में आने वाले
और मन से जाने वाले प्रत्येक विचार के प्रति वह सचेत है, अपने प्रत्येक रिश्ते के अर्थ को समझता है।
साधक के संतुलन को डगमगाने वाला खतरा आश्रव के रूप में आता है। आश्रव यानी जो सभी दिशाओं से आता है। कंपनों का एक प्रवाह है जो आपकी चेतना में चारों ओर से घुस रहा है। वह निरंतर आपके मन में हलचल मचाए रहता है, उसे आकर्षित और विकर्षित करता रहता है, उठाता और गिराता रहता है। यह प्रवाह आता कहाँ से है? आपके अंदर से और बाहर से, समाज से, मनोभावों से, आपके नियमन से, आपकी मानसिक संरचना से और आपके राग-द्वेष की पृष्ठभूमि से। इस भावना में हम आश्रव पर चिंतन करेंगे ताकि समझ सकें कि आप किस तरह के प्रवाहों के प्रति संवेदनशील हैं और किस तरह इनके द्वारा निगले जाने से अपने आपको बचा सकते हैं।
आपकी चेतना में कई प्रकार के अप्रिय विचार और भाव पहले से ही घुसपैठ कर चुके हैं और आपको दिन-रात परेशान कर रहे हैं। वे आपको सहज आनंदावस्था में रहने नहीं देते। संतुलन ही आनंद है। हमारी नैसर्गिक अवस्था संतुलन में रहने की है, आनंद में रहने की है। यह खुशी से अलग है क्योंकि खुशी किसी टेक या बाहरी उत्प्रेरण पर निर्भर करती है, मगर आनंद को कुछ नहीं चाहिए।
आनंद तो स्वयं के साथ रहना है, अपनी आत्मा के साथ रहना है। जब आप संतुलन की अवस्था में हैं, तो आपकी चेतना के सच्चे स्वरूप को देखा जा सकता है, उसके शांत, स्वच्छ, शुद्ध रूप को - किसी पहाड़ी
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