Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 157
________________ १३१ लोक का स्वरूप अँगूठी को बाहर नहीं फेंकते हैं। आप उसका मूल्य जानते हैं, इसलिए उसकी सुरक्षा करते हैं। इसी तरह जब आप अपने जीवन का मूल्य जान जाते हैं, तब किसी भी कीमत पर, किसी भी प्रेमी के लिए, किसी भी बॉस के लिए, या किसी भी व्यवसाय के लिए, या जीवन में आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए अपने दिन को बरबाद नहीं करेंगे। वह दुनियां की हर वस्तु से अधिक मूल्यवान है। वह वापस आने वाला नहीं है। इसे कहते हैं आंतरिक लोक का अवलोकन। आप उस प्रत्येक परिस्थिति की ओर ध्यान देने लगते हैं जो आपको विचलित कर रही है। आप उस परिस्थिति को अपनी आंतरिक दृष्टि के समक्ष लाकर पूछते हैं, 'यह परिस्थिति मुझे दुःखी क्यों कर रही है? यह आदत मेरा दिन क्यों बिगाड़ रही है?' जैसे-जैसे आप जानने लगते हैं कि कौन सी परिस्थितियाँ आपके मन में असंतुलन पैदा करती हैं, तब आप दुहरी अभिज्ञता से इस प्रक्रिया को देखते हैं। अतः आप देखते हैं कि आप विचलित हो गए हैं। यह प्रथम अभिज्ञता है। आप स्वयं को विचलित होते हुए देखते हैं। यह दूसरी अभिज्ञता है। इस तरह आप निरीक्षक भी हैं और निरीक्षित वस्तु भी। आप रोगी भी हैं और वैद्य भी। आप रोगी हैं क्योंकि आपको गुस्सा आ रहा है। आप चिकित्सक हैं क्योंकि आप अपना इलाज कर रहे हैं। आपका मन रोगी है; आपकी आत्मा चिकित्सक है। दुहरी अभिज्ञता से देखते हुए आप हर परिस्थिति को एक प्रयोग के रूप में लेते हैं। आप स्वयं से कहते हैं, 'यह मेरी प्रयोगशाला है। अब मैं पता लगाने जा रहा हूँ कि यह रोग क्यों आया है।' हर परिस्थिति आपको कुछ और सीखने का अवसर देती है और पुदगल की अतिरिक्त परतों को हटाने का अवसर देती है - ये जड़ीभूत मानसिक या भावनात्मक खंड हैं। .. जब हम सीमित दृष्टि के दायरे में रहते हैं, हम एक बहुत छोटे आंतरिक लोक में जीते हैं। हम बाह्य लोक को भी इन सीमाओं से रंग देते हैं और उसे एक बाधा के रूप में देखने लगते हैं। जब हम इन आंतरिक सीमाओं को तोड़ देते हैं, तब हमारी अभिज्ञता के साथ हमारा लोक प्रशस्त होने लगता है। हम लोक में झूमते हुए भ्रमण करते हैं और संपर्क में आने वाले हर हाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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