Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 164
________________ १३८ जीवन का उत्कर्ष इसलिए हम गहराई में जाते हैं। हम बौद्धिकता के पार चले जाते हैं। हम अनुभव करने लगते हैं कि हमारे अंतर्मन में ऐसा कुछ अवश्य है जो मृत्यु पर विश्वास नहीं करता। यदि हम मृत्यु पर सचमुच विश्वास करते, तो सुबह उठ नहीं पाते। जब हमें किसी की मृत्यु का समाचार मिलता है. तो हम ज़रा दुःखी होते हैं, हम किसी और को यह सूचना दे देते हैं, और फिर अपनी राह चले जाते हैं। दूसरों की मृत्यु का समाचार सुनकर भी हम अपनी मृत्यु के बारे में नहीं सोचते।। हम क्यों नहीं सोचते, ‘मृत्यु आ रही है! अच्छा होगा यदि मैं कोई पूर्वोपाय कर लूँ! जब हमें ख़तरे का एहसास होता है, तभी हम बचाव का कदम उठाते हैं। क्या मृत्यु सबसे बड़ा खतरा नहीं है? फिर भी हम जीवन का मज़ा लेते रहते हैं। जरा सोचिए। क्या इसका मतलब यह है कि हम मृत्यु में विश्वास नहीं करते? क्या हम शंकालु हैं? क्या हम समझते हैं कि मृत्यु मात्र एक छलावा है? यदि वह हमारे लिए वास्तविक होता, तो हम उसे अधिक गंभीरता से लेते। इससे स्पष्ट है कि हम देखते तो हैं, मगर अपनी दृष्टि पर विश्वास नहीं करते हैं। हम अपनी आँखों पर विश्वास नहीं करते। यह जानते हुए कि वहाँ जल नहीं है, हम मरीचिका के पीछे नहीं भागते। ___ इसी प्रकार हम मृत्यु को देखते हैं, फिर भी उससे भयभीत नहीं हैं। इसके पीछे गूढ अर्थ छिपा हुआ है। यह एक रहस्य है - हमारा अंतर्वासी जानता है कि मृत्यु नहीं होती, क्योंकि वह अजन्मा है। हमारे अंतर्वासी ने कभी जन्म नहीं लिया। आंतरिक जीवन प्रामाणिक है। हमें अनुभूति होती है, 'जो मरता है, वह शरीर है, मैं नहीं। मेरी इंद्रियाँ मर जाएँगी। मैं इंद्रियाँ नहीं हूँ। मैं उनसे परे हूँ। मैं इंद्रियों को खिड़कियों के रूप में इस्तेमाल करता हूँ और जब मैं इस घर में, इस शरीर में निवास कर रहा हूँ, तब उन्हें साफ रखने का प्रयत्न करता हूँ।' हमारा अंतर्वासी इस घर से या खिड़कियों से अपनी पहचान नहीं बनाता है। वे सभी द्रष्टा से पृथक हैं। ____ यदि खिड़कियाँ और उनसे देखने वाला दोनों एक होते, तो देखना ही नहीं होता, न कुछ दिखता, न देखने की प्रक्रिया ही होती। इसलिए यहाँ हम समझ जाते हैं कि जब व्यक्ति वृद्ध हो जाता है और आँखें मूंद लेता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184