Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 173
________________ हमारी प्रकृति की वृत्ति १४७ आप अपने केन्द्रीय स्थान तक पहुँच जाएँगे, आप वहाँ से आना ही नहीं चाहेंगे। वहाँ से बाहर आना पीड़ादायक होगा। आप एक गहरी शांति की अनुभूति करेंगे जिससे बाहर आना ही नहीं चाहेंगे। कोई भी इच्छा आपको परेशान नहीं करेगी। कोई भी वस्तु आपको तंग नहीं करेगी। आप अपने साथ होंगे। लेकिन उस समय आप अपने शरीर की ज़रूरतों को, जब- जब वे प्रकट होंगी, पहचान लेंगे। जब आपके शरीर को कोई ज़रूरत महसूस हो, आप उसे वही देंगे जो उसे सचमुच चाहिए। जब उसे आराम की ज़रूरत है, आप उसे आराम देंगे। जब उसे पोषण की आवश्यकता है, उसे भोजन देंगे। शरीर बोझ नहीं है, न ही वह किसी व्यसन पर निर्भर है। आप उसके लिए जो करेंगे, वह उसे एक ताज़े और स्वस्थ वाहन के रूप में बनाए रखने के लिए करेंगे। इन सबसे बढ़कर, आपका आंतरिक जीवन इतना समृद्ध, इतना पूर्ण हो जाएगा कि आपको लगेगा कि आपको भीतर से ही पोषण मिल रहा है। जब आप उस अंदरूनी पोषण स्रोत तक पहुँच जाएँगे, आप क्षणिक संतृप्तियों की ओर ध्यान नहीं देंगे जो आती और जाती हैं। आप देख लेंगे कि ये क्षणिक संतृप्तियाँ हमेशा घाव के निशान छोड़ जाती हैं। ये आपमें पीड़ा की कोई न कोई रेखा कुरेद कर जाती हैं। ध्यान में कोई पीड़ा नहीं होती, घाव के कोई निशान नहीं बनते, आप मात्र अपनी वास्तविकता के तादात्म्य में आ जाते हैं। यह धर्म का पहला अर्थ है। धर्म का दूसरा अर्थ है - जुडना । जो मान को मानव से जोडे वह धर्म है। अधिकतर हम धर्म को सम्प्रदाय से जोडकर देखते हैं और दोनों को एक मान बैठते हैं। वस्तुतः धर्म और सम्प्रदाय अलग-अलग हैं। धर्म के सम्यक् परिपालनार्थ संप्रदाय का जन्म हुआ किन्तु आज यह धर्म के अर्थ में रूढि हो गया है। सम्प्रदाय धर्म का अंग हो सकता है जैसे- श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर धर्म नहीं हो सकते। धर्म जहां एकता को द्योतित करता है वहां सम्प्रदाय अलगाव को। अलग होना पीड़ादायक है; जुड़ना शांति है, सुख है। आप अपनी उच्च आत्मा से अलग हो गए हैं; इसीलिए आपको पीड़ा होती है। धर्म आपके अंदर का वह स्थान है जहाँ आप जुड़ते हैं, अपनी उच्च आत्मा से एकाकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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