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जीवन का उत्कर्ष लिया जाता है, जब अस्थायी को स्थायी मान लिया जाता है, तब उसे मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यात्व यानी भ्रांत धारणा। आध्यात्मिक साधक के पथ का सबसे खतरनाक अवरोध यही मिथ्यात्व है। स्पष्टता के इसी अभाव के कारण हम अपने नाम को, जो अस्थायी है, स्थायी समझते हैं और अपनी वास्तविकता को, जो स्थायी है, अस्थायी मानते हैं। इसलिए हमें स्पष्टता से धर्म और अधर्म दोनों को समझ लेना चाहिए, जिससे हम वास्तविक और अवास्तविक दोनों को पहचान सकें।
दिन-रात स्वयं से निरंतर कहते रहें, 'मैं आत्मा हूँ। सोहम्। मैं वह हूँ। बाकी कुछ भी अर्थ नहीं रखता। चाहे कोई मेरी तारीफ करे या बुराई, मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं बेचैन, दुःखी या कटु होना नहीं चाहता। मैं 'मैं' होना चाहता हूँ।' इसे अपनी चेतना में अच्छी तरह बिठा दें। फिर आप देखेंगे कि आप कितने साहस के साथ अपनी पुरानी आदतों, व्यसनों और आवश्यकताओं को छोड़ देते हैं। अब आप आसानी से न ही प्रलोभन में फँसेंगे और न ही प्रभावित होंगे।
जब हमें निरंतर अपनी वास्तविकता का स्मरण रहेगा और हम स्वयं के तारतम्य में होंगे, तब भी हम इस संसार से प्रलोभनों को दूर नहीं कर सकेंगे। ये तो रहेंगे ही; फर्क बस इतना ही होगा कि अब हम उनसे अपनी पहचान नहीं बनाते हैं। आप पूछ सकते हैं, 'प्रलोभन तो बहुत हैं। हम शांति से कैसे रहें?' इसका उत्तर अप्रमत्त रहने में है। किसी वस्तु को भीतर लेने से पूर्व उसकी प्रकृति को जान लेना चाहिए। उसे भीतर लेना या न लेना आपके ऊपर है। कोई आपको स्फटिक के गिलास में मीठा पेय पेश कर सकता है। उसकी सुगंध से उसकी मिठास की सूचना मिल रही है, लेकिन यदि आपको खबर है कि उसमें विष की एक बूंद घुली हुई है, तो आप उसे कदापि स्वीकार नहीं करेंगे। इसी प्रकार जब आप अवगत हो जाते हैं कि कोई विचार या वस्तु आपके लिए गुणदायक नहीं है, तो आप एक आंतरिक निर्णय लेते हैं कि आप उसे अपनी चेतना में नहीं लेंगे।
आइए इस प्रक्रिया को अधिक विस्तार से समझें। हमारे जीवन में चार तत्त्व हैं - शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा। जब ये चारों साथ मिलकर काम करते हैं, तो जीवन सार्थक बनता है। यदि हम इनमें से किन्हीं एक या
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